Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 369
________________ ३३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ६३. साणं संठाणपरूवणा तहा किण्ण कीरदे ? ण, मणपज्जयणाणावरणीयकम्मक्खओवसमस्स दवमणपदेसे विसियअदृच्छदारविंदसंठाणे समुप्पज्जमाणस्स तत्तो पुधभूदसंठाणाभावादो। संपहि मणपज्जयस्त विसयभूदटुपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि-- ___मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णा सदि मदि चिंता जीविद-मरणं लाहालाहं सुह-दुक्खं णयरविणासं देसाविणासं जणवयविणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टणविणासं दोणामुहविणासं अइवुट्ठि अणावुट्ठि सवुठ्ठि दुवुठि सुभिक्खं वुब्भिक्खं खेमाखेम-भय-रोग कालसंपजुत्ते अत्थे वि जाणवि ।। ६३ ॥ मणेण मदिणाणेण । कधं मदिणाणस्स मणव्ववएसो? कज्जे कारणोवयारादो। मणम्मि भवं लिंगं माणसं, अधवा मणो चेव माणसो। पडिविदइत्ता घेत्तूण पच्छा मणपज्जयणाणेण जाणदि। मदिणाणेण परेसिं मणं घेत्तण चेव मणपज्जयणाणेण मणम्मि टिदअत्थे क्यों नहीं करते ? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम विकसित आठ पाँखुडीयुक्त कमल जैसे आकारवाले द्रव्यमन प्रदेशमें उत्पन्न होता है, उससे इसका पृथग्भूत संस्थान नहीं होता। अब मनःपर्ययज्ञानके विषयभूत अर्थका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है-- मनके द्वारा मानसको जानकर मनःपर्ययज्ञान कालसे विशेषित दूसरोंकी संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाश, कर्वटविनाश, मडंबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुभिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोग रूप पदार्थों को भी जानता है।। ६३ ॥ मनसे अर्थात् मतिज्ञानसे । शंका-- मतिज्ञानकी मन संज्ञा कैसे है ? समाधान-- कार्य में कारणके उपचारसे मतिज्ञानकी मन संज्ञा सम्भव है। मनमें उत्पन्न हुए चिह नको मानस कहते हैं । अथवा मनकी ही संज्ञा मानस है। 'पडिविंदइत्ता' अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मनःपर्ययज्ञानके द्वारा जानता है। मतिज्ञानके द्वारा दूसरोंके मानसको ग्रहण करके ही मनःपर्ययज्ञानके द्वारा मनमें स्थित अर्थोंको जानता है. यह सव्वंगअंगसंभवचिण्हादुप्पज्जदे जहा ओही। मणपज्जव्वं च दब्वमणादो उप्पज्जदे णियमा | हिदि होदि हु दवमणं वियसियअटुच्छदारविदं वा 1 अंगोवंगुदयादो मणवग्गणखंधदो णियमा।। गो. जी. ४४१-४२. त प्रिती · विजाणदि ' इति पाठ: 1 म. बं. १, पृ. २४. कथमयमर्थो लभ्यते ? आगमाविरोधात् । आगमे हयुक्तं मनसा मनः परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् जानाति इति । त. रा. १, २३, ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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