Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 358
________________ ५, ५, ५९. ) पयडिअणुओगद्दारे देवेसु ओहिविसयपरूवणा ( ३२१ सुत्ताभावादो। देवाणं विसईभददव्वस्त पमाणपरूवणठं गाहापच्छिमद्धं भणदि-सग' खेत्ते सलागभूदे संते सगकम्मे मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागेण सलागं परिच्छिज्जमाणे जमंतिम रूवगवं पोग्गलदव्वं तं तस्स विसओ होदि । एत्थ च सद्दो अवुत्तसमुच्चयो । तेण मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागभदभागहारो तदवट्टिदत्तं च सिद्धं । एत्थ ताव सोहम्मोसाणदेवाणं दवपरूवणं कस्सामो । तं जहा- सगक्खेत्तं लोगस्स संखेज्जविभागं सलागभदं द्ववेदूण मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागं विरलेदूण सव्वदच्वं समखंडं कादूण एक्केक्कस्स रूवस्स दादूण सलागरासीदो एगागासपदेदो अवणेदव्यो।पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तूण एदिस्से अवट्टिदविरलणाए समखंडं करिय दाऊण बिदिया सलागा अवणेदवा। एसो कमो ताव कायन्वो जाव सव्वाओ सलागाओ णिट्टिदाओ ति। एत्थ ज सव्वपच्छिमकिरियाणिप्पणं पोग्गलदव्व मेगरूधरिदं तं रूवगदं णाम । तं सोहम्मीसाणदेवा ओहिणाणेण पेक्खंति । एवं सव्वेदेवेसु दव्वपरूवणा कायन्वा । णवरि सगसगक्खेत्तं सलागभदं ठवेदूण किरिया कायव्वा। एवं दव्वं देवेसु किमुक्कस्समाहो अणक्कस्समिदि ? ण, देवेसु जादिविसेसेण णाणं पडि समाणभावमावण्णेसु उक्तस्साहुक्कस्सभेदाभावादो। नहीं है। अब देवोंक विषयभूत द्रव्यके प्रमाणका कथन करनेके लिए गाथाके उत्तरार्धका व्याख्यान करते हैं - अपने अपने क्षेत्रको सलाकारूपसे स्थापित करके अपने अपने कर्ममें मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागकी जितनी शलाकायें स्थापित की हैं उतनी बार भाग देनेपर जो अन्तिम रूपगत पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है वह उस उस देवके अवधिज्ञानका विषय होता है । यहांपर 'च' शब्द अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिए आया है। इससे मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागरूप भागहार तदवस्थित रहता है, यह सिद्ध होता है । .. अब यहापर पहले सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंके द्रव्यके प्रमाणका कथन करते हैं । यथा- लोकके संख्यातवें भागप्रमाण अपने क्षेत्रको शलाकारूपसे स्थापित करके और मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका विरलन करके विरलित राशिको प्रत्येक एकके प्रति सब द्रव्यको समान खण्ड करके देनेपर शलाका राशिमेंसे एक आकाशप्रदेश कम कर देना चाहिए । पुनः यहां विरलित राशिके एक अंकके प्रति जो राशि प्राप्त हो उसे उक्त अवस्थित विरलन राशिके ऊपर समान खण्ड करके स्थापित करे और शलाका राशिमेंसे दूसरी शलाका कम करे । यह क्रिया सब शलाकाओंके समाप्त होने तक करे । यहां सबसे अन्तिम क्रियाके करनेपर जो एक अंकके प्रति प्राप्त पुद्गल द्रव्य निष्पन्न होता है उसकी रूपगत संज्ञा है। उसे सौधर्म और ऐशान कल्पके देव अपने अवधिज्ञान द्वारा देखते हैं। इसी प्रकार सब देवोंमें अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यके प्रमाणका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने अपने क्षेत्रको शलाकारूपसे स्थापित कर यह क्रिया करनी चाहिए। शंका-- यह द्रव्य देवोंमें क्या उत्कृष्ट है या अनुत्कृष्ट है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि देव जातिविशेषके कारण ज्ञानके प्रति समान भावको प्राप्त होते हैं, अतएव उनमें अवधिज्ञानके द्रव्यका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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