Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 356
________________ ५, ५, ५९.) पडिअणुओगद्दारे देवेसु ओहिविसयपरूवणा (३१९ आणद-पाणदकप्पवासियदेवा सगविमाणसिहरप्पहुडि हेट्ठा जाव पंचमपुढविहेट्ठिमतले त्ति ताव अद्धसहिदणवरज्जुआयदं एयरज्जवित्थारं लोयणालि पस्संति। आरणअच्चुदकप्पवासियदेवा सगविमाणसिहरप्पडि हेढा जाव पंचमपुढविहेदिमतले त्ति ताव दसरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं लोगणालि पेक्खंति।' छट्ठी गेवेज्जया देवा' णरगेवज्जविमाणवासियदेवा अप्पप्पणो विमाणसिहरप्पहुडि हेट्ठा जाव छट्टिपुढविहेट्ठिमतले त्ति ताव विसेसाहियएक्कारहरज्जुआयद रज्जुविक्खंभं लोगणालि पेक्खंति। सव्वं च लोगणालि पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणतभागं चं ॥१४॥ 'अणुत्तरेसु च' णवाणुद्दिस पंचाणुत्तरविमाणवासियदेवा अप्पप्पणो विमाणसिहरादो हेट्ठा जाव णिगोदट्टाणस्स बाहिरिल्लए वादवलए त्ति ताव किंचूणचोद्दसरज्जुआयदं रज्जुवित्थारं सब्दलोगणालि पस्संतिका'सव्वं च'एत्थ जो चसद्दो सो अवुत्तसमुच्चयट्ठो। तेण णवाणुद्दिसदेवाणं गाहासुत्ते अणुवइट्ठाणं* गहणं कदं। लोगणालीसद्दो अंतदीवओ त्ति आनत और प्राणत कल्पवासी देव अपने विमानके शिखरसे लेकर नीचे पांचवी पृथिवीके नीचेके तलभाग तक साढे नौ राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालीको देखते हैं। आरण और अच्युत कल्पवासी देव अपने विमानके शिखरसे लेकर नीचे पांचवीं पृथिवीके नीचेके तलभाग तक दस राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालीको देखते हैं। नौ अवेयक विमानवासी देव अपने अपने विमानोंके शिखरसे लेकर नीचे छठी पथिवीके नीचेके तल भाग तक साधिक ग्यारह राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालीको देखते हैं। अनुत्तरोंमें रहनेवाले जितने देव हैं वे समस्त ही लोकनालीको देखते हैं। ये सब देव अपने अपने क्षेत्रके जितने प्रदेश हों उतनी बार अपने अपने कर्ममें मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका भाग देनेपर जो अन्तिम एक भाग लब्ध आता है उसे जानते हैं ॥१४॥ नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देव अपने अपने विमानशिखरसे लेकर नीचे निगोदस्थानसे बाहरके वातवलय तक कुछ कम चौदह राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली सब लोकनालीको देखते हैं। 'सव्वं च ' यहांपर जो 'च' शब्द है वह अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिए है। इससे गाथासूत्र में अनिर्दिष्ट नौ अनुदिशवासी देवोंका ग्रहण किया है । लोकनाली गेविज्जा सत्तमि च उवरिल्ला 1 संभिण्णलोयणालिं पासंति अणुत्तरा देवा । वि. भा. ६९९-७०० (नि. ४९-- ५०). आणय-पाणय-आरणच्चय देवा अहे जाव पंचमाए धमप्पभाए हेठुिल्ले चरिमते, हेट्रिम-मज्झिमगेवेज्जगदेवा अधे जाव छठ्ठाए तमाए पुढवीए हेट्रिल्ले जाव चरमंते 1 उवरिमगेविज्जगदेवा णं भंते! केवतियं खेत्री ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहन्नेणं अगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं अधे सत्तमाए हेछिल्ले घरमंते, हिरियंजाव असंखेज्जे दीव-समुद्दे, उड्ढं जाव सयाई विमाणाइंओहिणाजाणंति पासंति प्रज्ञापना ३३-४, ४ षट्वं पु. ९, १, २६. ति.प.८, ६८७. नवानामनुदिशानां पंचानुत्तरविमानवासिनां च लोक नालिपर्यन्तोऽवधिः। त. रा १, २१, ७. * अ-आ-काप्रतिषु 'अणुद्दिसटाणं', ताप्रतो 'अणहिट्ठाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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