Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 362
________________ ५,५, ५९. ) पयडिअणुओगद्दारे तिरिक्ख- रइएस ओहिविसओ ( ३२५ जहण्णोगाहणं तस्सेव उक्करसोग्गाहणाए सोहिय सुद्ध सेसम्मि रूवं पक्लिविय तेण तेक्काइयरासिम्हि गुणिदे सलागारासी होदि । पुणो परमोहिजहण्णदव्वमवद्विदविरणाए समखंड काढूण दिण्णे तत्थ एगखंडं परमोहोए बिदियो दव्ववियप्पो होदि । पुणो परमो हिजहण्णखेत्त-काले पडिरासिय पुव्विल्लआवलियाए असंखेज्ज विभागस्स + वगेण गुणिदे खेत्त कालाणं बिदियवियप्पो होदि । एवं वेयणाए वृत्तविहाणेण णंदवं जाव सागरासी सव्वो गिट्टिदो* त्ति । तत्थ चरिमो दव्ववियप्पो हवगदं णाम । तं परमोहिउक्क सविसओ होदि । चरिमखेत्त-काला वि तस्स उक्कस्सखेत्त-कालवियप्पा होंति । एवं सव्वोहीए वि जाणिदूण परूवणा कायव्वा । तेयासरीरलंबो उक्कस्सेण दु तिरिक्खजोणिणीसु । गाउअ + जहण्णओहि णिरएस अ जोयणुक्कस्सं * ।। १६ ।। तिरिक्खजोणिणीसु' पंचिदियतिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणिणी उक्कस्सेण दव्वं केत्तियं होदि ? 'तेजासरीरलंबो' तेजइयसरीरसंचयभूदपवेस " शंका -- यहां शलाका राशि क्या हैं ? समाधान -- तेजकायिक जीवकी जघन्य अवगाहनाको उसीकी उत्कृष्ट अवगाहनामें से घटाकर जो शेष रहे उसमें एक मिलाकर उसके द्वारा तेजकायिक जीवराशिको गुणित करनेपर शलाकाराशि होती है । पुनः परमावधिज्ञानके जघन्य द्रव्यको अवस्थित विरलनराशिके ऊपर समान खंड करके देयरूपसे स्थापित करनेपर वहां प्राप्त एक खण्ड परमावधिज्ञानका दूसरा द्रव्यविकल्प होता है । पुनः परमावधिज्ञानके जघन्य क्षेत्र और कालको प्रतिरागि करके पूर्वोक्त आवलिके असंख्यातवें भाग के वर्गसे गुणित करनेपर क्षेत्र और कालका दूसरा विकल्प होता है । इस प्रकार वेदना खण्ड (पु. ९, पृ ४२-४७ ) में कहीं गई विधि के अनुसार पूरी शलाकाराशिके समाप्त होने तक कथन करना चाहिए । उसमें जो अन्तिम द्रव्यविकल्प हैं उसकी रूपगत संज्ञा है । वह परमावधिज्ञानका उत्कृष्ट विषय होता है । अन्तिम क्षेत्र और काल भी उसके उत्कृष्ट क्षेत्र और कालके भेद होते हैं । इसी प्रकार सर्वावधिज्ञानका भी जानकर कथन करना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनो जीवोंके तैजसशरीरका संचय उत्कृष्ट द्रव्य होता है । नारकियोंमें जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र गव्यूति प्रमाण है और उत्कृष्ट क्षेत्र योजन प्रमाण है ॥ १६ ॥ 'तिरिक्खजोणिणीसु' अर्थात् पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी जीवों के उत्कृष्ट द्रव्य कितना होता है ? 'तेजासरीरलंबो' अर्थात् तैजसशरीरके ताप्रती 'जहण्णोगाहणं 1 तस्सेव' इति पाठ: । षट्खं पु ९, पृ. ४२-४७. आ-का-ताप्रतिषु सरीरलंओ ' इति पाठः 1 काप्रतो ' आउअ ' इति पाठ: ताप्रती 'असंखे० भागादिभागस्स ' इति पाठः णिद्दिट्ठो' इति पाठः । X काप्रती ' तेयाम. बं. १, पृ. २३. आहारतेयलंभी उक्को 1 सेणं तिरिक्खजोणीसु । गाउअ जहण्णमोही नरएसु य जोयणवकोसो || वि. भा. ६९३. (नि. ४६ ) . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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