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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
अकसायमवेदत्तं* अकारयत्तं विदेहदा चेव ।
अचलत्तमलेपत्तं च होंति अच्चंतियाइं से ॥ ३१ ॥ सगसरूवे दिण्णचित्तजीवाणमसेसपावपणासओ जिणउवइट्ठणवपयत्था वा ज्झयं होति। कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो? ण, तेसिं रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो। उत्तं च
__ आलंबणेहि भरियो ले गो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स ।
जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलंबणं होइ® 11 ३२ ।। बारसअणुपेक्खाओ उवसमसेडि-खवगसेडिचडणविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंचपरियट्टाणि दिदि-अणुभाग-पयडि-पदेसादि सव्वं पि ज्झयं होदि त्ति दट्टव्वं । एवं ज्झेयपरूवणा गदा।
झाणं दुविहं-धम्मज्झाणं सुक्कज्झाणमिदि । तत्थ धम्मज्झाणं ज्झेयभेदेण चउविहं होदि-आणाविचओ अपायविचओ विवागविचओ संठाणविचओ चेदि । तत्थ आणा णाम आगमो सिद्धंतो जिणवयणमिदि एयट्ठो। एत्थ गाहाओ
अकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, देहराहित्य, अचलत्व, अलेपत्व ; ये सिद्धोंके अत्यन्तिक गुण होते हैं ॥३१॥
जिन जीवोंने अपने स्वरूप में चित्त लगाया है उनके समस्त पापोंका नाश करनेवाला ऐसा जिन देव ध्यान करने योग्य है। अथवा जिन द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य हैं।
शंका- जब कि नौ पदार्थ निर्गुण होते हैं अर्थात् अतिशय रहित होते हैं ऐसी हालतमें वे कर्मक्षयके कर्ता कैसे हो सकते है?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वे रागादिकके निरोध करने में निमित्त कारण है इसलिये उन्हें कर्मक्षयका निमित्त मानने में कोई विरोध नहीं आता । कहा भी है
यह लोक ध्यानके आलम्बनोंसे भरा हआ है। ध्यान में मन लगानेवाला क्षपक मनसे जिस जिस वस्तुको देखता है वह वह वस्तु ध्यानका आलम्बन होती है ।। ३२ ।।
बारह अनुप्रेक्षायें, उपशमश्रेणि और क्षपक श्रेणिपर आरोहणविधि, तेईस वर्गणायें, पांच परिवर्तन, स्थिति, अनुभाग, प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य अर्थात् ध्येय होते हैं। ऐसा यहां जानना चाहिये । इस प्रकार ध्येयका कथन समाप्त हुआ।
ध्यान दो प्रकारका है- धर्मध्यान और शुक्लध्यान । उनमें से धर्मध्यान ध्येयके भेदसे चार प्रकारका है- आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। यहांपर आज्ञासे आगम, सिद्धान्त और जिनवचन लिए गये हैं; क्योंकि, ये एकार्थवाची शब्द है । इस विषयमें गाथायें हैं
*ताप्रती ' अकसायत्तमवेदत ' इति पाठः। 8 प्रतिषु · अचलत्तमलेयत्तं ' इति पाठः । भग. २१५७. ॐ भग. १८७६.
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