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५, ४, २८.) कम्माणुओगद्दारे किरियाकम्मपरूवणा
( ८९ च । वंदणकाले गुरुजिणजिणहराणं पदरिखणं काऊण णमंसणं पदाहीणंणाम । पदाहिणणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खुत्तं णाम । अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगरुरिसिवंदणाओ तिण्णिवारं किज्जति त्ति तिक्खत्तं णाम । तिसंज्झास चेव वंदणा कीरदे अण्णत्थ किण्ण कीरदे? ण; अण्णत्थ वि तप्पडिसेहणियमाभावादो। तिसंज्झासु वंदणणियमपरूवण तिक्खुत्तमिदि भणिदं । ओणदं अवनमनं भूमावासनमित्यर्थः। तं च तिण्णिवारं कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदंतं जहा-सुद्धमणो धोदपादो* जिणिददंसणजणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जंजिणस्स अग्गे बइसदि तमेगमोणदांजमुट्ठिऊण जिणिदादीणं वित्ति कादूण बइसणं तं बिदियमोणदं । पुणो उट्टिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धि काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयरागं वंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथवं काऊण जं भूमीए बइसणं तं तदियमोणदं। एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे फीरमाणे तिण्णि चेव ओणमणाणि होति । सव्वकिरियाकम्म चदुसिरं होदि । तं जहा-सामाइयस्स आदीए जं जिणिदं पडि सोसणमणं तमेगं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं सोसणमणं तं विदियं सीसं । त्थोस्सामिदंडयस्स आदीए जंसीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं। एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं
वन्दना करते समय गुरु, जिन और जिनगृहकी प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओंका तीन वार करना त्रि:कृत्वा है। अथवा एक ही दिनमें जिन, गुरु और ऋषियोंकी वन्दना तीन वार की जाती है, इसलिये इसका नाम त्रिःकृत्वा है।
शंका-तीनों ही संध्याकालोंमें वन्दना की जाती है, अन्य समयमें क्यों नहीं की जाती? समाधान- नहीं, क्योंकि, अन्य समयमें भी वन्दनाके प्रतिषेधका कोई नियम नहीं है। तीनों सन्ध्या कालोंमें वन्दनाके नियमका कथन करने के लिये 'त्रिःकृत्वा' ऐसा कहा है।
'ओणद' का अर्थ अवनमन अर्थात् भूमिमें वैठना है। वह तीन बार किया जाता है इस लिये तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा- शुद्धमन, धौतपाद और जिनेन्द्रके दर्शनसे उत्पन्न हुए हर्षसे पुलकित वदन होकर जो जिनदेवके आगे बैठना, यह प्रथम अवनति है। तथा जो उठकर जिनेन्द्र आदिके सामने विज्ञप्ति कर बैठना, यह दूसरी अवनति है । फिर उठकर सामायिक दण्डकके द्वारा आत्मशुद्धि करके, कषायसहित देहका उत्सर्ग करके, जिनदेवके अनन्त गुणोंका ध्यान करके, चौवीस तोथंकरोंकी वन्दना करके फिर जिन, जिनालय और गुरुकी स्तुति करके जो भूमिमें बैठना, वह तीसरी अवनति है । इस प्रकार एक एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होतो हं।
सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है । यथा- सामायिकके आदिमें जो जिनेन्द्र देवको सिर नवाना वह एकसिर है। उसीके अन्त में जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। 'त्थोस्सामि' दण्डकके आदिमें जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है। तथा उसीके अन्त में जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्य चतुःशिर होता है। इससे अन्यत्र नमनका प्रतिषेध
अ-आप्रत्योः ' पदाहीणं ' इति पाठः । * ताप्रती 'बोध ( धोद ) पादो' इति पाठः । Yor ताप्रतो' एवं ' इत्यतत्पदं नास्ति ।
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