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५,५,५२. )
अणुओगद्दारे ओहिणाणावरणीयपयडिपरूवणा
( २८९
यथा स्थिताः जीवादयः पदार्थाः तथा अनुमृग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनेनेति यथानुमार्गः श्रुतज्ञानम् । जहाणमग्गं ति गदं । लोकवदनादित्वात्पूर्वम् । पुण्यं ति गदं । यथानुपूर्वी यथानुपरिपाटी इत्यनर्थान्तरम् । तत्र भवं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा यथानुपूर्वम् । सर्वासु पुरुषव्यक्तिषु स्थितं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं च यथानुपरिपाट्या सर्वकालमवस्थिमित्यर्थः । एवं जहाणुपुत्रि त्ति गदं बहुषु पूर्वेषु वस्तुषु इदं श्रुतज्ञानं* अतीव पूर्वमिति पूर्वातिपूर्वं श्रुतज्ञानम् कुतोऽतिपूर्वत्वम् ? प्रमाणमन्तरेण शेषवस्तु पूर्वत्वावगम नुपपत्तेः । एवं सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स अण्णा परूवणा कदा होदि ।
ओहिणानावरणीयस्स क्रम्मस्स केवडियाओ पयडोओ ? । ५१ । एवं पुच्छासुत्तं कि संखेज्जाओ किमसंखेज्जाओ किमअनंताओ त्ति एवं तिदयमुवेक्खदे । सेसं सुगम ।
ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेज्जाओ पयडीओ | ५२ | असंखेज्जाओति कुदोवगम्मदे ? आवरणिज्जस्स ओहिणाणस्स असंखेज्जवियप्पत्तादो।
यथावस्थित जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा ' अनुमृग्यन्ते ' अर्थात् अन्वेषित किये जाते हैं वह श्रुतज्ञान यथानुमार्ग कहलाता है। इस प्रकार यथानुमार्ग पदका व्याख्यान किया । लोकके समान अनादि होने से श्रुत पूर्व कहलाता है । इस प्रकार पूर्व पदका व्याख्यान किया । यथानुपूर्वी और यथानुपरिपाटी ये एकार्थवाची शब्द हैं । इसमें होनेवाला श्रुतज्ञान या द्रव्यश्रुत यथानुपूर्व कहलाता है । सब पुरुषव्यक्तियों में स्थित श्रुतज्ञान और द्रव्यश्रुत यथानुपरिपाटी से सर्वकाल अवस्थित है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार यथानुपूर्वी पदका कथन किया । बहुत पूर्व वस्तुओं में यह श्रुतज्ञान अतीव पूर्व है, इसलिये श्रुतज्ञान पूर्वातिपूर्व कहलाता है ।
शंका इसे अतिपुवता किस कारणसे प्राप्त है ?
समाधान - क्योंकि प्रमाणके विना शेष वस्तु पूर्वोका ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिय इसे अपूर्व कहा है ।
इस प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी अन्य प्ररूपणा की ।
अवधिज्ञानावरण कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ।। ५१ ।।
यह पृच्छासूत्र वे क्या संख्यात है, क्या असंख्यात हैं और क्या अनन्त हैं; इन तीनकी अपेक्षा करता है । शेष कथन सुगम है ।
अवधिज्ञानावरण कर्मको असंख्यात प्रकृतियां हैं ।। ५२ ।।
शंका – असंख्यात हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान क्योंकि आवरणीय अवधिज्ञानके असंख्यात विकल्प है। उन विकल्पोंका
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प्रतिषु श्रुतं ज्ञानं ' इति पाठ 1 प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः । प्रतिषु सर्वत्रैव ' अपेक्षते । इत्येतस्मिन्नर्थे ' उवेक्खदे ' इत्ययमेव पाठ उपलभ्यते। 6 संखाइओ खलु ओहीणाणस्स सव्वपयडीओ 1 काई भवपच्चइया खओवसमियाओ काओ वि । वि. भा. ५७१ (नि. २४ ).
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