Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 336
________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स अवट्ठाणकालपरूवणा (२९९ चेव विणट्ठस्स ओहिणाणस्स एगसमयकालवलंभादो। जीवट्ठाणादिसु ओहिणाणस्स जहण्णकालो अंतोमुत्तमिदि पढिदो । तेण सह कधमेदं सुत्तंण विरुज्झदे?ण एस दोसो, ओहिणाणसामण्ण-विसेसावलंबणादो। जीवट्ठाणे जेण सामण्णोहिणाणस्स* कालो परूविदो तेण तत्थ अंतोमुत्तमेत्तो होदि। एत्थ पुण ओहिणाणविसेसेण अहियारो, तेण एक्कम्हि ओहिणाणविसेसे एगसमयमच्छिदूग बिदियसमए वड्ढीए हाणीए वा णाणतर. मुवगयस्स एगसमओ लब्भदे। एवं दो-तिण्णिसमए आदि कादूण जाव समऊणावलिया त्ति ताव एवं चेव परूवणा कायव्वा । कुदो? दो तिण्णिआदिसमए अच्छिदूण वि ओहिणाणस्स वडि-हाणीहि णाणंतरगमणुवलंभादो। एवमावलियमेत्तकालं पि ओहिणाणविसेसे अच्छिदूण वडि-हाणीहि णाणंतरगमणं संभवदि । एवं खण-लव-महुत्त-दिवसपक्खादीसु सुत्तुद्दिद्रुतु ओहिणाणस्स अवडाणपरूवणा कायव्वा । संपहि खण-लवादीणमत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा- थोवो खणो णाम । स संखे. ज्जावलियमेत्तो होदि ।कुदो? संखेज्जावलियाहि एगो उस्सासो, सुत्तस्सासेहि एगो थोवो होदि ति परियम्मवयणादो। सत्तहि खणेहि एगो लवो होदि। सत्तहत्तरिलवेहि एगो मुहुत्तो होदि । अधवा सत्ततीससदेहि तेहत्तरिउस्सासेहिर एगो महत्तो होदि।वत्तं चसमय काल उपलब्ध होता है । शंका--- जीवस्थान आदिमें अवधिज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। उसके साथ यह सूत्र कैसे विरोधको प्राप्त नहीं होता ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवधिज्ञानसामान्य और अवधिज्ञानविशेषका अवलम्बन लिया गया है। यत: जीवस्थानमें सामान्य अवधिज्ञानका काल कहा है, अत: वहां अन्तर्मुहुर्त मात्र काल होता है। किन्तु यहांपर अवधिज्ञानविशेषका अधिकार है, इसलिए एक अवधिज्ञानविशेषका एक समय काल तक रहकर दूसरे समयमें वृद्धि या हानिके द्वारा ज्ञानान्तरको प्राप्त हो जानेपर एक समय काल उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दो तीन समयसे लेकर एक समय कम आवलि काल तक इसी प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि, दो या तीन आदि समय तक रहकर भी अवधिज्ञानकी वृद्धि और हानिके द्वारा ज्ञानान्तर रूपसे उपलब्धि देखी जाती है। इसी प्रकार आवलिमात्र काल तक भी अवधिज्ञानविशेष में रहकर बृद्धि या हानिके द्वारा ज्ञानान्तर रूपसे प्राप्ति संभव है। इसी प्रकार सूत्र में कहे गए क्षण, लव, मुहर्त, दिवस और पक्ष आदि काल तक अवधिज्ञानके अवस्थानका काल कहना चाहिए। अब क्षण और लव आदिकोंके अर्थ कथन करते हैं । यथा- क्षणका अर्थ स्तोक है, वह संख्यात आवलि प्रमाण होता हैं; क्योंकि, संख्यात आवलियोंका एक उच्छ्वास होता है और सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक होता है, ऐसा परिकर्म सूत्रका वचन है । सात क्षणोंका एक लव और सतत्तर लवोंका एक मुहूर्त होता है । अथवा तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छासोंका एक मुहूर्त होता है। कहा भी है-- *काप्रती पदिदो', ताप्रती 'पदिदो (परूविदो)' इति पाठः । षट्वं. पु. ७, पृ. १६४. *प्रतिष 'सामण्णेहिणाणस्स ' इति पाठः। ४ होंति हु असंखसमया आवलिणामो तहेव उस्सासो । संखेज्जावलिणिवहो सो चिय पाणो त्ति विक्खादो। सत्तुस्सासो थोनं सत्तत्थोबा लवित्ति णादवो। सत्तत्तरिदलिदवा णाली बेणालिया महत्तं च । ति. प. ४, २८६-८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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