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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ५, ३५
२३८ ) क्वचिद् घटप्रयत्योत्पत्युपलम्भात् क्वचिद् गौरिव गवय इति उपमया सह उपमेयप्रत्ययोपलम्भात् कदाचित् स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययदर्शनात् कदाचिद् बहूनर्थान् जातिद्वारेणान संदधानस्यानुसंधानप्रत्ययस्य दर्शनात् । अर्वाग्भागावष्टम्भबलेन अनालम्बित पर भागादिषूत्पद्यमानः प्रत्ययः अनुमानं किन्न स्यादिति चेत्- न, तस्य लिंगादभिन्नार्थविषयत्वात् । न तावदवग्भागप्रत्ययसमकालभावी परभागप्रत्ययोऽनुमानम् तस्य अवग्रहरूपत्वात् । न भिन्नकालभाव्यप्यनुमानम्, तस्य ईहापृष्टभाविनः अवायप्रत्ययेऽन्तर्भावात् । क्वचिदेकवर्णश्रवणकाल एवाभिधास्यमानवर्णविषय प्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् क्वचित्स्वभ्यस्तवस्तुनि द्वित्र्यादिस्पर्शात्मके एकस्पर्शोपलम्भकाल एव स्पर्शान्त र विशिष्टतद्वस्तुपलम्भात् क्वचिदेकरसग्रहणकाल एव तत्प्रदेशासन्निहितरसान्तर विशिष्ट वस्तू पलम्भात् । निःसृतमित्यपरे पठन्ति । तन्न घटते, उपमाप्रत्ययस्य एकस्यैव तत्रोपलम्भात् ।
एतत्प्रतिपक्षो निःसृतप्रत्ययः, क्वचित्कदाचिद्वस्त्वेकदेश एव प्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् । प्रतिनियत गुणविशिष्टवस्तुपलम्भकाल एव तदिन्द्रियानियत गुणविशिष्टस्य तस्योपलब्धिरनुक्तप्रत्ययः । न चायमसिद्धः, चक्षुषा लवण-शर्करा- खण्डोपलम्भकाल एव अर्वाग्भागके देखने के समयमें ही कहीं पर पूरे घटके ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है । कहींपर वय गायके समान होता है ' इस प्रकार उपमाके साथ ही उपमेयज्ञानकी उपलब्धि होती है । कदाचित् ' वही यह है ' इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय देखा जाता है । कदाचित् बहुत अर्थोंका जातिद्वारा अनुसंधान करनेवालेके अनुसंधान प्रत्यय देखा जाता हैं ।
शंका- अर्वाग्भाग के आलम्बनबलसे अनालम्बित परभागादिकोंका होनेवाला ज्ञान अनुमान ज्ञान क्यों नही होगा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि अनुमानज्ञान लिंगसे भिन्न अर्थको विषय करता है । अर्वाग्भाग के ज्ञानके समान कालमें होनेवाला परभागका ज्ञान तो अनुमान ज्ञान हो नहीं सकता, क्योंकि, वह अवग्रहस्वरूप ज्ञान है । भिन्न कालमें होनेवाला भी उक्त ज्ञान अनुमान ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, ईहाके बादमें उत्पन्न होनेसे उसका अवायज्ञानमें अन्तर्भाव होता है ।
कहींपर एक वर्णके सुनने के समय में ही कहे आगे जानेवाले वर्णविषयक ज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध होती है, कहींपर दो तीन आदि स्पर्शवाली अतिशय अभ्यस्त वस्तुमें एक स्पर्शका ग्रहण होते समय ही दूसरे स्पर्शसे युक्त उस वस्तुका ग्रहण होता है; तथा कहींपर एक रसके ग्रहण समयमें ही उस प्रदेशमें असन्निहित दूसरे रससे युक्त वस्तुका ग्रहण होता है; इसलिये भी अनिःसृतप्रत्यय असिद्ध नहीं है । दूसरे आचार्य अनिःसृतके स्थानमें निःसृत पाठ पढते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर एकमात्र उपमा प्रत्यय हीं वहां उपलब्ध होता है। इसका प्रतिपक्षभूत निःसृतप्रत्यय है, क्योंकि, कहीं पर किसी कालमें वस्तुके एकदेश के ज्ञानकी ही उत्पत्ति देखी जाती है । प्रतिनियत गुण विशिष्ट वस्तुके ग्रहण के समय ही जो गुण उस इन्द्रियका विषय नहीं है ऐसे गुणसे युक्त उस वस्तुका ग्रहण होना अनुक्तप्रत्यय है । यह प्रत्यय असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, चक्षुके द्वारा लवण, शर्करा और खांडके ग्रहण के समय ही
तातो प्रतिनियम इति पाठ: 1
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