Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 307
________________ २७०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ४८. पाहुडस्स जे अहियारा तत्थ एक्केक्कस्स अणयोगद्दारमिदि सण्णा । पुणो अणुयोगहारसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे अणयोगद्दारसमासो णाम सुदणाणं होदि । एवमेगेगुत्तरक्खरवड्ढीए अणयोगद्दारसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छवि जाव एगक्खरेणूणपाहुडपाहुडे त्ति । पुणो एक्स्सवरि एगक्खरे वडिवे पाहुडपाहुडसुदणाणं होदि। किं पाहुडपाहुडं णाम ? संखेज्जाणि अणुयोगद्दाराणि घेत्तूण एगं पाहुडपाहुडसुदणाणं होदि । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पाहुडपाहुडसमाससुदणाणं होवि । एवमेगेगक्खरउत्तरवड्ढीए पाहुडपाहुडसमाससदणाणं वडमाणं गच्छदि जाव एगवखरेणणपाहुडसुदणाणे ति। पुणो एवस्सुवरि एगक्खरे वडिदे पाहुडसुदणाणं होदि । तं पुण संखेज्जाणि पाहुडपाहुडाणि घेत्तण एगं पाहुडसुदणाणं होदि । एवस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पाहुडसमाससुदणाणं होवि । एबमेगेगत्तरक्खरवड्डीए पाहुडसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणणवत्थसुदणाणे ति । पुणो एत्थ एगक्खरे वड्ढिदे वत्थुसुदणाणं होदि । वत्थु त्ति किं वृत्तं होदि ? पुव्वसदणाणस्स जे अहियारा तेसि पुघ पुध वत्थु इदि सण्णा । अग्गेणियस्स पुवस्स चयणलद्धिआदिचोद्दसअहियारा । एदस्सुवरि एगवखरे वढिदे वत्थुसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवड्ढीए प्राभृत संज्ञा है । और प्राभृतप्राभृतके जितने अधिकार होते हैं उनमेंसे एक एक अधिकारकी अनुयोगद्वार संज्ञा है। पुनः अनुयोगद्वार श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अनुयोगद्वारसमास नामका श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यूनप्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान होता है। पुन: इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतप्राभूत श्रुतज्ञान होता है। शका- प्राभृतप्राभृत यह क्या है ? समाधान- संख्यात अनुयोगद्वारोंको ग्रहण कर एक प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान होता हैं। पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून प्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने त तक प्राभतप्राभतसमास श्रतज्ञान होता है। पूनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वद्धि होनेपर प्राभत श्रुतज्ञान होता है। संख्यात प्राभूतप्राभतोंको ग्रहण कर एक प्राभृत श्रुतज्ञान होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रामृतसमास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून वस्तु श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्राभूतसमास श्रुतज्ञान होता है । पुन: इसमें एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तु श्रुतज्ञान होता है। शंका- वस्तु इस पदसे क्या कहा गया है? समाधान- पूर्व श्रुतज्ञानके जितने अधिकार हैं उनकी अलग अलग वस्तु संज्ञा है । यथा- अग्रायणीय पूर्वके चयनलब्धि आदि चौदह अधिकार। इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तुसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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