Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 310
________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणभेदपरूवणा (२७३ एगक्खरेणूणपाहुडसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे लोगबिंदुसारचरिमपाहुडसुदणाणं- होदि । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पाहुडसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवडिकमेण पाहुडसमाससुदणाणं वड्डमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणूणलोगबिंदुसारदसमवत्थुसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगवखरे वडिदे वत्थुसुदणाणं होदि । पुणो एवस्सुवरि एगक्खरे वडिदे वत्थुसमाससुदणाणं होदि । एबमेगेगक्खरुत्तरवडिकमेण वत्थुसमाससुदणाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणूणलोगबिंदुसारसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे लोगविदुसारसुदणाणं होदि । पुणो लोगबिंदुसारसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पुव्वसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवड्डिकमेण पुव्वसमाससुदणाणं होदूण गच्छदि जाव सयलसुदणाणपढमक्खरे ति । एवं पडिसारिबुद्धिजीवाणं सुदणाणेण परिणमणविहाणं परूविदं । संपहि सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तसव्वजहण्णलद्धि अक्खरस्सुवरि एगे पक्खेवे वडिदे है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर लोकबिंदुसारका अन्तिम प्राभृत श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर वृद्धि होनेके क्रमसे एक अक्षरसे न्यून लोकबिंदुसारके दसवें वस्तु श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्राभूतसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है । पुन: इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तु श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तुसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर वृद्धि होने के क्रमसे एक अक्षरसे न्यून लोकबिंदुसार श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक वस्तुसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है । पुन: इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर लोकबिन्दुसार श्रुतज्ञान होता है । पुनः लोकबिन्दुसार श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर वृद्धि होने के क्रमसे सकल श्रुतज्ञानके प्रथम अक्षरके प्राप्त होने तक पूर्वसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है । इस प्रकार प्रतिसारी बुद्धिवाले जीवोंके श्रुतज्ञानरूपसे परिणमन करनेकी विधि कही। विशेषार्थ- यहांपर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य ज्ञानसे आगे श्रुतज्ञानकी वृद्धि किस क्रमसे होती है, इसका विवेचन दो प्रकारसे किया है। कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके पहले उत्पादपूर्वका ज्ञान होता है और आगे वह आनुपूर्वीको लिए हुए बढता रहता है । और कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके पहले अन्तिप पूर्व लोकबिन्दुसारका ज्ञान होता है और आगे वह प्रथम उत्पादपूर्वके ज्ञानके प्राप्त होने तक बढता रहता है । इनमेंसे पहले प्रकारके जीव' अनुसारी बुद्धिवाले कहे गये हैं और दूसरे प्रकारके जीव' प्रतिसारी बुद्धिवाले कहे गये हैं। इस प्रकार श्रुतज्ञानके क्षयोपशमकी अपेक्षा जो बीस भेद किये हैं उनका विस्तारसे विचार किया गया है। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके सबसे जघन्य लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञानके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि ताप्रती ' वड्डिदे पाहुडसुदणाणं हीदि ' इति पाठः । (काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः) |* ताप्रतो लोगबिंदुसारसुदणाणे ति ' इति पाठः[अ-का-ताप्रतिष 'एगेगपक्खेवे 'इति पाठ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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