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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड प्रतितिष्ठिन्ति विनाशेन विना अस्यामा इति प्रतिष्ठा । संपहि आभिणिबोहियणाणाणस्स एय?परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
सण्णा सदी मवी चिता चेदि ॥ ४१ ॥ सम्यग्ज्ञायते अनया इति संज्ञा । स्मरणं स्मतिः । मननं मतिः। चिन्तनं चिन्ता।
एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स अण्णा परूवणा कदा होदि ॥ ४२ ॥
आभिणिबोहियणाणपरूवणाए कदाए कधं तदावरणीयस्स परूवणा होदि ? ण एस दोसो, आभिणिबोहियणाणावगमस्स तदावरणावगमाविणाभावित्तादो । संपहि सुहमेइंदियलद्धिअक्खरप्पहडि छवड्ढीए द्विदअसंखेज्जलोगमेतमदिणाणवियप्पा अस्थि, ते एत्थ किण्ण परूविदा? ण एस दोसो, तेसि सव्वेसि पि णाणाणं तदावरणाणं च एत्थेव अंतभावादो। अधवा, देसामासियमिदं सुत्तं, तेण ते वि एत्थ परूवेदव्वा। अम्हे
अब आभिनिबोधिक ज्ञानके एकार्थों का कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैंसंज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये एकार्थवाची नाम हैं । ४१ ।।
जिसके द्वारा भले प्रकार जानते हैं वह संज्ञा है । स्मरण करना स्मृति है। मनन करना मति है। चिन्तन करना चिन्ता है । इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मको अन्य प्ररूपणा की गई है । ४२ ।
शंका - आभिनिबोधिक ज्ञानका कथन करनेपर आभिनिबोधिकज्ञानावरणका कथन कैसे होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आभिनिबोधिक ज्ञानका अवगम आभिनिबोधिकज्ञानावरणके अवगमका अविनाभावी है।
शंका - सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके लब्ध्यक्षरज्ञानसे लेकर छह वृद्धियोंके साथ स्थित असंख्यात लोकप्रमाण मतिज्ञानविकल्प होते हैं, वे यहां क्यों नहीं कहे गये हैं ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन सब ज्ञानोंका और उनके आवरण कर्मोंका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। अथवा यह सूत्र देशामर्शक हैं, इसलिये वे भी यहांपर कहने चाहिय
_ विशेषार्थ - जिस प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य श्रुतज्ञान होता है और आगे उत्तरोत्तर उस ज्ञान में असंख्यात लोकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि आदि षड्गुणी वृद्धि देखी जाती है उसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य मतिज्ञान होता है और आगे उस ज्ञानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि आदि षड्गुणी वृद्धि देखी जाती है। इतना ही नहीं आगे चलकर अक्षरज्ञानके उत्पन्न होनेपर फिर दुगुणी तिगुणी आदि वृद्धि होकर जिस प्रकार पूर्ण श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार मतिज्ञानकी भी उत्तरोत्तर वृद्धि होनी चाहिये । इसलिए प्रश्न है कि यहांपर इस विवक्षासे मतिज्ञानका विवेचन क्यों नहीं किया । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यहां मतिज्ञानके जातिकी अपेक्षा
४मति स्मति संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् । त. सू.१-१३. सण्णा सई मई पण्णा सव्व आभिणिबोहियं ll नं. सू. गाथा ६, वि. मा. ३९६ ( नि. १२).0 ताप्रती 'स्मृतिः स्मरणं । मति: मनन । चिंता चितनं 1' इति पाठ:14 ताप्रती धवलान्तर्गतमिदं न सूत्रत्वेनोपलभ्यते ।
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