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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ५, २१.
सहावो चव । ण च सेसावरणाणमावरणिज्जाभावेण अभावो, केवलणाणावरणीएण आवरिदस्स वि केवलणाणस्स रूविदव्वाणं पच्चक्खग्गहणक्खमाणमवयवाणं संभव-- दसणादो। ते च जीवादो णिप्फिडिदणाणकिरणा पच्चक्ख-परोक्खभेएण दुविधा होति । तत्थ जो पच्चक्खो भागो सो दुविहो. संजमपच्चओ सम्मत्त-संजम भवपच्चओ चेदि । तत्थ संजमपच्चओ मगपज्जयणाणं णाम । अवरो वि ओहिणाणं । तत्थ जो सो परोक्खो सो दुविहो- इंदियणिबंधणो इवियजणिदणाणणिबंधणो चेदि । तत्थ इंदियजो भागो मदिणाणं णाम । अवरो वि सुदणाणं एदेसि चदुष्णं गाणाणं जमावारयं कम्मं तं मदिणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जयणाणावरणीयं च भण्णदे । तदो केवलणाणसहावे जीवे संते वि णाणावरणीयपंचयभावो त्ति सिद्धं ।। केवलणाणावरणीयं कि सव्वघादी आहो देसधादी। ताव तव्वघादी, केवलणाणस्स णिस्सेसाभावे संते जीवाभावप्पसंगादो आवरणिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पसंगादो वा ण च देसघादी* केवलणाण केवलदसणावरणीयपयडीओ सव्वघावियाओ त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। एस्थ परिहारोण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादी, किंतु
समाधान- यहां उक्त शंकाका समाधान करते हैं। जीव केवलज्ञान स्वभाववाला ही है। फिर भी एसा माननेपर आवरणीय शेष ज्ञानोंका अभाव होनेसे उनके आवरण कर्मोंका अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञानावरणीयके द्वारा आवृत हुए भी केवलज्ञातके रूपी द्रव्योंको प्रत्यक्ष ग्रहण करने में समर्थ कुछ अवयवोंकी सम्भावना देखी जाती है और वे जीवसे निकले हुए ज्ञानकिरण प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमें जो प्रत्यक्ष भाग है वह दो प्रकारका है- संयमप्रत्यय और सम्यक्त्व, संयम तथा भवप्रत्यय । उनमें संयमप्रत्यय मन:पर्ययज्ञान है और दूसरा अवधिज्ञान है । तथा उसमें जो परोक्ष भाग है वह भी दो प्रकारका हैइन्द्रियनिबन्धन और इन्द्रियजन्य-ज्ञान- निबन्धन । उनमें इन्द्रियजन्य भाग मतिज्ञान है और दूसरा श्रुतज्ञान है।
इन चार ज्ञानोंके जो आवारक कर्म हैं वे मतिज्ञानावरणीय. श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म कहे जाते हैं। इसलिये केवलज्ञानस्वभाव जीवके रहनेपर भी ज्ञानावरणीयके पांच भेद हैं, यह सिद्ध होता है ।
शंका- केवलज्ञानावरणीय कर्म क्या सर्वघाति है या देशघाति है ? सर्वघाति तो हो नहीं सकता, क्योंकि केवलज्ञानका निःशेष अभाव मान लेनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है । अथवा आवरणीय ज्ञानोंका अभाव होनेपर शेष आवरणोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म देशधाति भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्म सर्वघाति हैं' इस सूत्रके साथ विरोध आता है ?
समाधान- यहां समाधान करते हैं । केवलज्ञानावरणीय देशधाति तो नहीं है, किन्तु 8 अप्रतो' णिप्पिडिद-, आ.का-ताप्रतिष ' णिप्पिडिद- ' इति पाठः 18का-ताप्रत्यो — विसुद्धणाणं. इति पाठ:
1 काप्रती ' आधादेसधादी', ताप्रती 'आधा (हो) देसघादी' इति पाठः । ताप्रती 'ण देसघादी ' इति पाठः।
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