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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ४, ३१.
सीएम से मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु ओघं । एवं पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ततस-तसपज्जत्त - पंचमण-पंचवचिकायजोगि-ओरालिय-ओरालिय मिस्स कायजोगि कम्मइयकायजोगि आभिणि-सुद-ओहि-म गपज्जवणाणि संजद चक्खु अचक्खु - ओहिदंसणि सुक्कलेस्सियभवसिद्धिय - सम्माइट्ठि - खइयसम्माइट्ठि उवसमसम्माइट्ठि सण्णि आहा
सुवत्तव्वं, विसेसाभावादो। आहार - आहार मिस्साणमोघ । णवरि इरियावथ कम्मं णात्थ; तत्थ खोणुवसंतकसायाणमभावादो। एवं तिण्णिवेद - चत्तारिकसाय-सामाइय-छेदोवट्ठावण - परिहार सुद्धिसंजदते उपम्मले स्सिय- वेदगसम्मादिट्ठीणं वत्तव्वं, अविसेसादो । सुहुमसांपराइय- जहाक्खादविहार सुद्धिसंजदाणमोघं । णवरि किरियाकम्मं णत्थि ; ज्झाणेगग्गमणाणं तदसंभवादो। णवरि सुहुमसांपराइएस इरियावथकम्मं पि णत्थि सकसा सु तदसंभवादो। अवगदवेद - अक्साइ केवलणाणि केवल दंसणीणं जहाक्खादविहारसुद्धिसंज दभंगो | संजदासंजदेसु अस्थि पओअकम्म-समोदाजकम्म-आधा कम्म किरियाकस्माणि । एवमसंजद- किण्हणील- काउलेस्सियाणं पि वत्तव्वं । एवमभवसिद्धिय - सासणसम्माइट्ठिसम्मा-मिच्छाइट्ठीनं वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मं णत्थि । अणाहारेसु ओघं । एवं संतपरूवणा समत्ता ।
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मनुष्यगति में मनुष्यों में तथा मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें ओघ के समान कर्म होते हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचन योगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगीं, आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्यसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके कथन करना चाहिये, क्योंकि, उनसे इनमें कोई भेद नहीं है ।
आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोगियोंके अधिक समान कर्म होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनके ईर्यापथकर्म नहीं होता, क्योंकि वहां पर क्षीणकषाय और उपशान्तकषाय अवस्थाओंका अभाव है । इसी प्रकार तीन वेद, चार कषाय, सामायिकसयत छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, पीत लेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, उनसे इनमें कोई विशेषतः नहीं है । सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातविहार शुद्धिसंयत जीवोंके ओघके समान कर्म होते हैं । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं होता, क्योंकि इनका मन ध्यान में लगा रहता है, इसलिये वहां क्रियाकर्मका होना असंभव है । साथ ही इतनी और विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवों के ईर्यापथ कर्म भी नहीं होता, क्योंकि, कषायसहित जीवोंका ईर्यापथ कर्म नहीं हो सकता । अपगतवेदी, अकषायी, केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवोंके समान कर्म होते हैं । संयतासंयतजीवोंके प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध कर्म और क्रियाकर्म होते हैं । इसी प्रकार असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले और कापोत लेश्यावाले जीवोंके भी कहना चाहिये । तथा इसी प्रकार अभव्यसिद्धिक, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के भी कहना चायिये । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नही होता । अनाहारक जीवों के ओघ के समान कर्म होते हैं । इस प्रकार सत्प्ररूपणा समाप्त हुई ।
ताप्रतौ 'संजम' इति पाठ :
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