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८८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ४, २७. फलमेदं ज्झाणं? अघाइचउक्कविणासफलां तदियसुक्कज्झाणं जोगणिरोहफलं। सेलेसियअद्धाए ज्झीणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धि गच्छदि । एवं ज्झाणं णाम तवोकम्म गदं।
द्वियस्स णिसण्णस्स णिव्वण्णस्स वा साहुस्स कसाएहि सह देहपरिच्चागो काउसग्गो णाम। णेदं ज्झाणस्संतोल णिवददि; बारहाणुवेक्खासु वावदचित्तस्स वि काओस्सग्गुववत्तीदो। एवं तवोकम्मं परूविदं।
जं तं किरियाकम्म णाम ।। २७ ।। तस्स अत्थविवरणं कस्सामो
तमादाहीण पदाहीणं* तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम ॥ २८ ॥
तं किरियाकम्मं छव्विहं आदाहीणादिभेदेण। तत्थ किरियाकम्मे कीरमाणे अप्पायत्तत्तं ॐ अपरवसत्तं आदाहीणं णाम । पराहीणभावेण किरियाकम्म किण्ण कीरदे?ण; तहा किरियाकम्म कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो जिणिदादिअच्चासणवारेण कम्म
शंका- इस ध्यानका क्या फल है ? समाधान- अघाति चतुष्कका विनाश करना इस ध्यानका फल है। योगका निरोध करना तीसरे शुक्लध्यानका फल है ।
शैलेशी अवस्थाके कालके क्षीण होनेपर सब कर्मोंसे मुक्त हुआ यह जीव एक समयमें सिद्धिको प्राप्त होता है । इस प्रकार ध्यान नामक तपः कर्मका कथन समाप्त हुआ।
स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करनेवाले साधु का कषायोंके साथ शरीरका त्याग करना कायोत्सर्ग नामका तप:कर्म है। इसका ध्यान में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, जिसका बारह अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवन में चित्त लगा हुआ है, उसके भी कायोत्सर्गकी उत्पत्ति देखी जाती है।
इस प्रकार तपःकर्मका कथन समाप्त हुआ। अब क्रियाकर्मका अधिकार है ॥२७॥ इसके अर्थका खुलासा करते हैं
आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन वार करना, तीन वार अवनति, चार वार सिर नवाना और बारह आवर्त, यह सब क्रियाकर्म है ॥२८॥
आत्माधीन होना आदिके भेदसे वह क्रियाकर्म छह प्रकारका है। उनमें से क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीन होना कहलाता है ।
शंका- पराधीनभावसे क्रियाकर्म क्यों नहीं किया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उस प्रकार क्रियाकर्म करनेवालेके कर्मोंका क्षय नहीं होता और जिनेन्द्रदेव आदिकी आसादना होनेसे कर्मोंका बन्ध होता है।
ताप्रती 'णिविण्णस्स' इति पाठः । * आ-क-ताप्रतिषुः ' झाणस्संते ' इति पाठः * अ-आप्रत्योः ' पदाहीणं' इति पाठः । ॐ मुद्रितप्रती ' अप्पायतत्तं ' इति पाठः ।
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