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कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाई। उप्पाद-द्विदिभंगादिपज्जया जे य दव्वाणं ॥ ४३ ।। पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खादं । णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागादि ।। ४४ ।। खिदिवलयदीवसायरणयरविमाणभवणादिसंठाणं । वोमादिपडिट्ठाणं णिययं लोगट्ठिदिविहाणं ।। ४५ ।। उवजोगलक्षणमणाइणिहणमत्थंतरं सरीदादो। जीवमरूवि कारि भोइं च सयस्स कम्मस्स ।। ४६ ॥ तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं । वसणसयसावमीणं * मोहावत्तं महाभीमं ।। ४७ ।। णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोयं । संसारसागरमणोरपारमसुहं विचितेज्जो ॥ ४८।। कि बहसो सव्वं चि य जोवादिपयत्थवित्थरो वेयं । सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसब्भावं ॥ ४९ ।। ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादिचिंतणापरमो । होइ सुभावियचित्तो-*- धम्मज्झाणे जिह व पुव्वं ।। ५० ॥
जिनदेवके द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहनेका स्थान, भद, प्रम तथा उनकी उत्पाद, स्थिति और व्यय आदि रूप पर्यायोंका; पांच अस्तिकायमय, अनादिनिधन,
मादि अनेक भेदरूप और अधोलोक आदि भागरूपसे तीन प्रकारके लोकका; तथा पृथिवीवलय, द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदिके संस्थानका; एवं आकाशमें प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेदका चिन्तवन करे ।। ४३-४५ ।।
जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादिनिधन है, शरीरसे भिन्न है, अरूपी है तथा अपने कर्मोका कर्ता और भोक्ता है। ऐसे उस जीवके कर्मसे उत्पन्न हुआ जन्म मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकडों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य हैं, मोहरूपी आवर्त है और अत्यन्त भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है और उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत हैं। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त संसारका चिन्तवन करे ।। ४६-४८ ॥
___ बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना जीवादि पदार्थों का विस्तार कहा है उस सबसे युक्त और सर्वनयसमूहमय समयसद्भावका ध्यान करे ।। ४९ ॥
- ऐसा ध्यान करके उसके अन्त में मुनि निरन्तर अनित्य आदि भावनाओंके चिन्तवनमें तत्पर होता है । जिससे वह पहलेके समान धर्म्य ध्यान में सुभावितचित्त होता है ॥ ५० ॥
@अप्रतो 'सायरसुरणरयविमाण' इति पाठः। -ताप्रतौ 'णिययण' इति पाठः। ॐ प्रतिष' । भोईच्च' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो: 'सयसावमीणं' इति पाठः। आप्रतौ महादोयं', ताप्रतौ 'महादो (पो) यं' इति पाठः । *ताप्रतौ 'हाएन भविय चित्तो' इति पाठः ।
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