________________
८०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ४, २६. ज्झाएदि, अण्णदरजोगेण अण्णदराभिधाणेण य तत्थ एगम्हि दव्वे गुणे पज्जाए वा मेरुमहियरोव्व णिच्चलभावेण अवट्टियचित्तस्स असंखेज्जगुणसेडीए कम्मक्खंधे गालयंतस्स अणंतगुणहीणाए सेडीए कम्माणुभागं सोसयंतस्स कम्माणं द्विदीयो एगजोग-एगाभिहाणज्झाणेण घादयंतस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालो गच्छदि। तदो सेसखीणकसायद्धमेत्तद्विदीयो मोत्तूण उवरिमसवद्विदीयो घेत्तूण उदयादिगुणसेडिसरूवेण रचिय पुणो टिदिखंडएण विणा अधदिदि गलणेण असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मक्खंधे घातो गच्छदि जाव खीण. कसायचरिमसमओ त्ति । तत्थ खीणकसायचरिमसमए णाणावरणीय-दसणावरणीयअंतराइयाणि विणासेदि* । एदेसु विणठेसु केवलगाणी केयलदसणी अणंतवीरियो दाण-लाह-भोगुवभोगेसुॐ विग्घवज्जियो होदि त्ति घेत्तव्वं । दोण्णं सुक्कज्झाणाणं किमालंबणं? खंति-महवादओ। एत्थ गाहा
अह खंति-मद्दवज्जव-मुत्तीयो जिणमदप्पहाणाओ ।
आलंबणेहि जेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ ।। ६४ ।। संपहि दोण्णं सुक्कज्झाणाणं फलपरूवणं कस्सामो-अट्ठावोसभेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वुवसमावट्ठाणफलं पुधत्तविदक्कवीचारसुक्कज्झाणं। मोहसव्वुवसमो पुण धम्मज्झादिया है ऐसा क्षीणकषाय जीव नौ पदार्थो में से किसी एक पदार्थका द्रव्य, गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करता है। इस प्रकार किसी एक योग और एक शब्दके आलम्बनसे वहां एक द्रव्य, गुण या पर्याय में मेरुपर्वतके समान निश्चलभावसे अवस्थित चितवाले ; असंख्यात गुणश्रेणि क्रमसे कर्मस्कन्धोंको गलानेवाले, अनन्तगुणहीन श्रेणिक्रमसे कर्मों के अनुभागको शोषित करनेवाले और कर्मोकी स्थितियोंको एक योग तथा एक शब्दके आलम्बनसे प्राप्त हर ध्यानके बलसे घात करनेवाले उस जीवका अन्तर्मुहुर्त काल जाता है। तदनन्तर शेष रहे क्षोणकषायके काल प्रमाण स्थितियों को छोडकर उपरिम सब स्थितियोंकी उदयादि गुणत्रेणिरूपसे रचना करके पुनः स्थितिकाण्डकघातसे विना अधःस्थितिगलना द्वारा ही असंख्यातगुण श्रेणिक्रमसे कर्मस्कन्धोंका घात करता हुआ क्षीणकषायके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जाता है। और वहां क्षीणकषायके अन्तिम समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का युगपत् नाश करता है । इस प्रकार इनका नाश हो जानेपर यह जोव तदनन्तर समय में केवलज्ञानी, केवलदर्शनी और अनन्तवीर्यका धारी तथा दान-लाभ-भोग और उपभोगके विघ्नसे रहित होता है, ऐसा यहां समझना चाहिये ।
शंका- दोनों ही शुक्लध्यानोंका क्या आलम्बन है ? समाधान- क्षमा और मार्दव आदि आलम्बन है। इस विषयमें गाथा
क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोष ये जिनमत में ध्यान के प्रधान आलम्बन कहे गये हैं, जिन आलम्बनोंका सहारा लेकर साधु शुक्लध्यानपर आरोहण करते हैं ।। ६४ ।।
अब दोनों प्रकारके शुक्ल ध्यानोंके फलका कथन करते हैं- अट्ठाईस प्रकारके मोहनीयकी सर्वोपशमना होनेपर उसमें स्थित रखना पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यानका फल है।
@प्रतिषु 'अद्धढिदि' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः ‘विणासेडी' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो ' दाणलाहभोगेसु' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .