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५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा
( ७७ किफलमेदं धम्मज्झाणं? अक्खवएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जराफलं च । खवएसु पुण असंखज्जगुणसेडीए कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च। अतएव धर्मादनपेतं धयं ध्यानमिति सिद्धम्। एत्थ गाहाओ
होति सुहासव-संवर-णिज्जरामरसुहाइं विउलाई। . ज्झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ॥ ५६ ।। जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जति ।
ज्झाणप्पवणोवया तह कम्मघणा विलिज्जति ।। ५७ ।। एवं धम्मज्झाणस्स परूवणा गदा ।
संपहि सुक्कज्झाणस्स परूवणं कस्सामो। तं जहा-कुदो एदस्स सुक्कत्तं? कसायमलाभावादो। तं च चउन्विहं-पुधत्तविदक्कवीचारं एयत्तविदक्कअवीचारं सुहुमकिरिय. मप्पडिवादि समुच्छिण्णकिरियमप्पडिवादि चेदि। तत्थ पढमसुक्कज्झाणलक्खणं वच्चदे- पृथक्त्वं भेदः । वितर्कः श्रुतं द्वादशांगम्। वीचारः संक्रान्तिः अर्थ-व्यंजनयोगेषु । पृथक्त्वेन भेदेन वितर्कस्य श्रुतस्य वीचारः संक्रान्तिः यस्मिन् ध्याने तत्पृथक्त्ववितर्कवीचारम् । एत्थ गाहाओ
शंका- इस धर्मध्यानका क्या फल है ?
समाधान- अक्षपक जीवोंको देवपर्याय सम्बन्धी विपुल सुख मिलना उसका फल है और गुणश्रेणिमें कर्मोंकी निर्जरा होना भी उसका फल है ; तथा क्षपक जीवोंके तो असंख्यात गुणश्रेणिरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभ कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल है। अतएव जो धर्मसे अनपेत हैं वह धर्मध्यान है, यह बात सिद्ध होती है। इस विषयमें गाथायें
उत्कृष्ट धर्मध्यानके शुभ आस्रव, संवर, निर्जरा और देवोंका सुख; ये शुभानुबन्धी विपुल फल होते हैं ॥ ५६ ।।
अथवा, जैसे मेघपटल पवनसे ताडित होकर क्षण मात्रमें विलीन हो जाते हैं वैसे ही ध्यानरूपी पवनसे उपहत होकर कर्म-मेघ भी विलीन हो जाते हैं । ५७ ।।
इस प्रकार धर्मध्यानका कथन समाप्त हुआ। अब शुक्लध्यानका कथन करते हैं। यथाशंका- इसे शुक्लपना किस कारणसे प्राप्त है ? । समाधान- कषाय-मलका अभाव होनेसे।
वह चार प्रकारका है-पृथक्त्ववितर्क-वीचार, एकत्ववितर्क-अवीचार, सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती। उनमेंसे प्रथम शुक्लध्यानका लक्षण कहते हैं-पृथक्त्वका अर्थ भेद हैं, वितर्कका अर्थ द्वादशांग श्रुत है; और वीचारसे मतलब अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्ति है। पृथक्त्व अर्थात् भेदरूपसे वितर्क अर्थात् श्रुतका वीचार अर्थात् संक्रान्ति जिस ध्यान में होती है वह पृथक्त्ववितर्क-वीचार नामका ध्यान है । इस विषय में गाथायें
अ-आप्रत्योः 'सुहावि उद्धा वि ' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः 'वीचारः' इति पाठः ।
आ-ताप्रत्योः
‘पवणाहया' इति पाठः ।
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