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७४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ४, २६. __जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ होदि तो सुक्कज्झाणेण णिव्विसएण होदव्वमिदि? ण एस दोसो, दोण्णं पि ज्झाणाणं विसयं पडि भेदाभावादो। जदि एवं तो दोण्णं ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो ? दंसमसय-सीह-वय-वग्घ-तरच्छच्छहल्लेहि खज्जंतो वि वासीए तच्छिज्जतो वि करवत्तेहि फाडिज्जतो वि दावाणलसिहामुहेण कवलिज्जतो वि सीदवादादवेहि बाहिज्जंतो अच्छरसयकोडीहि लालिज्जंतओ वि जिस्से अवत्थाए ज्झेयादो ण चलदि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम । एसो वित्थिरभावो उभयत्थ सरिसो, अण्णहा ज्झाणभावाणुववत्तीदो त्ति? एत्थ परिहारो वुच्चदेसच्चं, एदेहि दोहि वि सरूवेहि दोण्णं ज्झाणाणं भेदाभावादो। किंतु धम्मज्झाणमेयवत्थुम्हि थोवकालावट्ठाइ । कुदो? सकसायपरिणामस्स गब्भहरंतद्विदपईवस्सेव चिरकालमवढाणाभावादो। धम्मज्झाणं सकसाएसु चेव होदि त्ति कधं णव्वदे? असंजदसम्मादिदि-संजदासंजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्ठिसंजद-सुहमसांपराइयखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो। सुक्कज्झाणस्स पुण
शंका- यदि समस्त समयसद्भाव धर्म्यध्यानका ही विषय है तो शुक्लध्यानका कोई विषय शेष नहीं रहता?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, दोनों ही ध्यानोंमें विषयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है।
शंका- यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानों में एकत्व अर्थात् अभद प्राप्त होता है. क्योंकि, दंशमशक, सिंह, भेडिया, व्याघ्र, श्वापद और भल्ल (रीछ) द्वारा भक्षण किया गया भी; वसूला द्वारा छीला गया भी, करोंतों द्वारा फाडा गया भी, दावानलके शिखा-मुख द्वारा ग्रसा गया भी; शीत वात और आतप द्वारा बाधा गया भी; और सैकडों करोड अप्सराओं द्वारा ललित किया गया भी जो जिस अवस्थामें ध्येयसे चलायमान नहीं होता वह जीवकी अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकारका यह स्थिरभाव दोनों ध्यानों में समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणामकी उत्पत्ति नहीं हो सकती?
समाधान- यहां इस शंकाके समाधानमें कहते हैं कि यह बात सत्य है कि इन दोनों प्रकारके स्वरूपोंकी अपेक्षा दोनों ही ध्यानोंमें कोई भेद नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि धर्म्यध्यान एक वस्तुमें स्तोक काल तक रहता है. क्योंकि, कषायसहित परिणामका गर्भगृहके भीतर स्थित दीपकके समान चिरकाल तक अवस्थान नहीं बन सकता।
शंका- धर्म्यध्यान कषायसहित जीवोंके ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान- असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक और उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक और उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत तथा क्षपक और उपशामक सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके धर्म्यध्यानकी प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिनदेवका उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धर्म्यध्यान कषायसहित जीवोंके होता है।
आप्रतौ 'तरच्छद्दहल्लेहि', ताप्रतौ 'तरच्छहल्लेहि ' इति पाठः । आप्रतौ ' दवाणलज्झराहामहेण' ताप्रती 'दवाणलमहामुहेण' इति पाठः। Oआप्रतौ 'जस्सेयवस्थाए', ताप्रती 'जिस्सेयवत्थाए ' इति पाठः ।
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