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छवखंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ४, २६.
विवित्तपासु अगिरि- गुहा -कंदर- पब्भार- सुसाण- आरामुज्जाणादिदेसत्थो - अण्णत्थ मणो विक्खवहेदुवत्थु दंसणेण सुहज्झाणविणा सप्पसंगादो । जहासुहत्थो - असुहासणे द्वियस्स पीडियंगस्स ज्झाणवाघादसंभवादो । एत्थ गाहा
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जच्चिय देहावत्था जया ण ज्झाणावरोहिणी होइ । झज्जो तदवत्थोट्ठियो णिसण्णो णिवण्णो वा ॥ १४ ॥ अणियदकालो - सव्वकालेसु सुहपरिणामसंभवादो। एत्थ गाहा
( ४ ) वह ( ध्याता ) एकान्त और प्रासुक ऐसे पहाड, गुफा, कन्दरा, पब्भार (गिरिगुफा) स्मशान, आराम और उद्यान आदि देशमें स्थित होता है, क्योंकि, अन्यत्र मनके विक्षेपके हेतुभूत पदार्थ दिखाई देने से शुभ ध्यानके विनाशका प्रसंग आता है |
सव्वा वट्टमाणामुणओ जं देस-काल- चेट्ठासु । वरकेवलादिलाहं पत्ता बहुसो खवियपावा ॥ १५ ॥ तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणो वयण- कायजोगाणं भूदोवधाय रहिओ सो देसो ज्झायमाणस्स ॥ १६ ॥ णिच्चं विय-जुवइ*-पसू णवुंसय-कुसीलवज्जियं जइणो । द्वाणं वियणं भणियं विसेसदो ज्झाणकालम्मि ।। १७ ।।
( ५ ) वह ( ध्याता ) अपनी सुखासन अर्थात् सहजसाध्य आसन से बैठता है, क्योंकि, असुखासन से बैठने पर उसके अंग दुखने लगते हैं जिससे ध्यानमें व्याघात होना सम्भव रहता है इस विषय में गाथा -
जैसी भी देहकी अवस्था जिस समय ध्यानमें बाधक नहीं होती उस अवस्था में रहते हुए खडा होकर या बैठकर कायोत्सर्गपूर्वक ध्यान करे ॥ १४ ॥
( ६ ) उस ( ध्याता ) के ध्यान करने का कोई नियत काल नहीं होता, क्योंकि, सर्वदा शुभ परिणामों का होना सम्भव है । इस विषय में गाथायें हैं
सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं में विद्यमान मुनि अनेकविध पापों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञान आदिको प्राप्त हुए ।। १५ ।।
मनोयोग, वचनयोग और काययोगका जहां समवधान हो और जो प्राणियोंके उपघातसे ( अर्थात् एकाग्रता ) रहित हो वही देश ध्यान करनेवालेके लिये उचित है ।। १६ ।
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जो स्थान श्वापद, स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील जनोंसे रहित हो और जो निर्जन हो; यति जनोंको विशेषरूपसे ध्यानके समय ऐसा ही स्थान उचित माना है ।। १७ ।।
Q तातो 'हेडवत्थु ' इति पाठः । ॐ अ-आप्रत्योः 'ज्झाणोवरोहणी' इति पाठः । जोग्गाणं ' इति पाठः । तातो 'वि य जुवइ' इति पाठः ।
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