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५, ४, १२.) कम्माणुओगद्दारे ठवणकम्मपरूवणा
( ४१ अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि कम्मे त्ति तं सव्वं णामकम्मं णाम ॥ १० ॥
एदे जीवादी अट्ट वि णामस्स आधारभूदा परूविदा। एदेसु अट्ठसु वट्टमाणो कम्मसहो णामकम्मे त्ति भणिदे कधं सदस्स कम्मववएसो? ण, कुणइ कीरदि त्ति तस्स कम्मत्तसिद्धीदो।
जं त ठवणकम्मं णाम ॥ ११ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो
तं कट्टकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जदि कम्मे त्ति तं सव्वं ठवणकम्म णाम ॥ १२ ॥
इनमेंसे जिसका कर्म ऐसा नाम रखा जाता है वह सब नामकर्म है ॥१०॥
ये जीवादि आठों ही 'नाम'के आधारभूत पदार्थ कहे गये हैं।
शंका- जब कि इन आठोंमें विद्यमान कर्म शब्द नामकर्म कहा जाता है, तब शब्दको कर्म संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, 'कुणइ' जो करता है और 'कीरइ' जो किया जाता है, इन दो प्रकार व्युत्पत्तियोंके अनुसार शब्दमें कर्म संज्ञाकी सिद्धि हो जाती है।
विशेषार्थ- लोकमें मुख्य पदार्थ दो हैं जीव और अजीव । इनके एक और अनेकके विकल्पसे प्रत्येक और संयोगी कुल भंग आठ होते हैं जो नामके आधारभूत पदार्थ कहे गये हैं। प्रश्न यह है कि जब इन पदार्थों में कर्मका कर्ता जीव भी है और जीव द्वारा कर्मरूप किया जानेवाला अजीव भी है, तब इन दोनोंके वाचक पृथक् शब्दोंको कर्म कैसे कहा? इसका उत्तर यह है कि कर्मका अर्थ दोनों प्रकार किया जा सकता है, करनेवालेके अर्थमें भी 'कुणइ' जो करता है और किये जानेवाले के अर्थ में भी 'कीरइ' जो किया जाता है। इस प्रकार दोनों अर्थों में कर्मपना सिद्ध हो जाता है।
अब स्थापनाकर्मका अधिकार है ॥ ११॥ इसके अर्थका कथन करते हैं
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंडकर्म; इनमें तथा अक्ष और वराटक एवं इनको लेकर और जितने भी कर्मरूपसे एकत्वके संकल्प द्वारा स्थापना अर्थात् बुद्धिमें स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकर्म है ॥ १२॥
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