________________
५, ३, ३२. ) कम्माणिओगद्दारे इरियावहकम्मपरूवणा
( ४७ अण्णेहितो होंति तं सरीरमाधाकम्मं ति भणिदं होदि । एवं घेप्पमाणे भोगभूमिगयमगुस्स-तिरिक्खाणं सरीरमाधाकम्मंण होज्ज, तत्थ ओद्दावणादीणमभावादो? ण, ओरालियसरीरजादिदुवारेण सबाहसरीरेण सह एयत्तमावण्णस्स आधाकम्मत्तसिद्धीदो।ओद्दावणादिदंस गादो रइयसरीरमाधाकम्मं ति किण्ण भण्णदे? (ण,) तत्थ ओद्दावणविद्दावण-परिदावणेहितो आरंभाभावादो। जम्हि सरीरे ठिदाणं केसि चि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहि मरणं संभवदि तं सरीरमाधाकम्म णाम। ण च एवं विसेसगं रइयसरीरे अस्थि, तत्तो तेसिमवमिच्चवज्जियाणं मरणाभावादो। अधवा चउण्णं समूहो जेणेगं विसेसणं, ण तेण पुवुत्तदोसो।
जं तमीरियावहकम्पं णाम ॥ २३॥ __ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो- ईर्या योगः; सः पन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव जं बज्झइ तमीरियावहकम्म ति भणिदं होदि।
तं छदमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमीरियावहकम्म णाम ॥ २४॥ निमित्तसे होते हैं वह शरीर अधःकर्म है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका- इस तरहसे स्वीकार करनेपर भोगभूमिके मनुष्य और तिर्यंचोंका शरीर अधःकर्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि, वहां उपद्रावण आदि कार्य नहीं पाये जाते?
___समाधान- नहीं, क्योंकि, औदारिक शरीररूप जातिकी अपेक्षा यह बाधासहित शरीर और भोगभूमिजोंका शरीर एक है, अतः उसमें अधःकर्मपनेकी सिद्धि हो जाती है ।
शका- नारकियों के शरीरमें भी उपद्रावण आदि कार्य देखे जाते हैं, इसलिये उसे अधःकर्म क्यों नहीं कहते?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वहांपर उपद्रावण, विद्रावण और परितापसे आरम्भ (प्राणि-प्राणवियोग) नहीं पाया जाता। जिस शरीरमें स्थित किन्हीं जीवोंके किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापनसे मरना सम्भव है वह शरीर अधःकर्म है। परन्तु यह विशेषण नारकियोंके शरीरमें नहीं पाया जाता, क्योंकि,इनसे उनकी अपमृत्यु नहीं होती इसलिये उनका मरण नहीं होता। अथवा चंकि उपद्रावण आदि चारोंका समदायरूप एक विशेषण है, इसलिये पूर्वोक्त दोष नहीं आता ।
अब ईर्यापथकर्मका अधिकार है ॥ २३ ॥
उसका अर्थ कहते हैं-ईर्याका अर्थ योग है। वह जिस कार्मण शरीरका पथ, मार्ग, हेतु है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है । योग मात्रके कारण जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथकर्म है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
वह छद्मस्थवीतरागोंके और सयोगिकेवलियोंके होता है। वह सब ईर्यापथकर्म है ॥ २४॥
आ-ताप्रत्योः 'अंतब्भावादो' इति पाठः। ॐ अ-आप्रत्यो: 'तेसिमधवच्च' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org