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कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा
( ५५ माविब्भावमिच्छाणिरोहो । तत्थ चउत्थ-छट्टम-दसम-दुवालस*-पक्ख-मास-उडुअयण-संवच्छरेसु एसणपरिच्चाओ असणं णाम तवोल। किमेसणं? असण-पाणखादिय-सादियं । किमट्ठमेसो कोरदे ? पाणिदियसंजमठे, भुत्तीए उहयासंजमअविणाभावदसणादो। ण च चउविहआहारपरिच्चागो चैव असणं, रागादीहि सह तच्चागस्स असणभावब्भुवगमायो । अत्र श्लोकः
अप्रवृत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणैः सह । उपवासस्स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ।। ६ ॥
समाधान- तीन रत्नोंको प्रकट करने के लिये इच्छनिरोधको तप कहते हैं।
उसमें चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें एषणका ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋत, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषणका त्याग करना अनेषण नामका तप है।
शंका- एषण किसे कहते हैं ? समाधान- अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इनका नाम एषण है। शंका- यह किसलिये किया जाता है ?
समाधान- यह प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयमकी सिद्धिके लिये किया जाता है, क्योंकि भोजनके साथ दोनों प्रकारके असंयमका अविनाभाव देखा जाता है।
पर इसका यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकारके आहारका त्याग ही अनेषण कहलाता है। क्योंकि, रागादिकोंके त्यागके साथ ही उन चारोंके त्यागको अनेषण रूपसे स्वीकार किया है। इस विषयमें एक श्लोक है
उपवासमें प्रवृत्ति नहीं करनेवाले जीवको अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उपवास करनेवालेको अनेक गुण, ऐसा यहां जानना चाहिये । शरीरके शोषण करनेको उपवास नहीं व.हते ॥ ६ ॥
__ विशेषार्थ- बारह प्रकारके तपोंमें पहला अनशन तप है। यहां इसका नाम अनेषण दिया है। एषणका अर्थ खोज करना है। साधु बुभुक्षाकी बाधा होनेपर चार प्रकारके निर्दोष आहारकी यथाविधि खोज करता है। इसलिये इसका एषण यह नाम सार्थक है। एषणा समितिसे भी यही अभिप्राय लिया गया है। अनशन यह नाम अशन नहीं करना, इस अर्थमें चरितार्थ है। इससे अनेषण इस नाममें मौलिक विशेषता है । एषणकी इच्छा न होनेपर साधु अनशनकी प्रतिज्ञा करता है, इसलिये अनेषण साधन है और अनशन उसका फल है । भोजनरूप क्रियाकी व्यावृत्ति अनशन है और भोजनकी इच्छा न होना अनेषण है। यहां 'अन् ' का अर्थ 'ईषत्' भी है। इससे यह अर्थ भी फलित होता है कि जो चार प्रकारके आहार में से एक, दो या तीन प्रकारके आहारका त्याग करते हैं उनके भी अनेषण तप माना जाता है।
* रत्नत्रयाविर्भावार्थ मिच्छानिरोधस्तपः, अथवा कर्मक्षयार्थं मार्गाविरोधेन तप्यते इति तपः । चरित्रसार पृ. ५९. -*- आ-ताप्रत्यो: 'दुवादस' इति पाठः । ॐ मूला. ( पंचाचा.) १५१.
असणं खुहप्पसमणं पाणाणमणुग्गहं तहा पाणं । खादंति खादियं पूण सादंति सादियं भगियं ।। मला (षडा) १४७. ताप्रतो' असणं' इति पाठः।
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