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५८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ४, २६. जिभिदिए णिरुद्ध सलिदियाणं णिरोहुवलंभादो, सलिदिएसु णिरुद्धेसु चत्तपरिग्गहस्स णिरुद्ध राग-दोसस्स तिगुत्तिगुत्तस्स पंचसमिदिमंडियस्स* वासी-चंदणसमाणस्स पाणासंजमणिरोहुवलंभादो ।
रुक्खमलब्भोकासादावणजोग-पलियंक-कुक्कुटासण-गोदोहद्धपलियंक-वीरासणमदय-सयण-मयरमुह-हत्थिसोंडादीहि जं जीव* दमणं सो कायकिलेसोल। किमट्ठमेसो कीरदे? सीद-वादादवेहि बहुदोववासेहि तिसा-छुहादिबाहाहि विसंठुलासणेहि य ज्झाणपरिचयळं, अभावियसीदबाधादिउववासादिबाहस्स मारणंतियअसादेण ओत्थअस्स ज्झाणाणुववत्तीदो।
त्थी-पसु-संढयादीहि ज्झाण-ज्झेयविग्घकारणेहि वज्जिय गिरिगुहा-कदर पब्भारसुसाण-सुण्णहरारामुज्जाणाओ पदेसा विवित्तं णाम । तत्थ सयणासणाभिग्गहो विवितसयणासणं णाम तवो होदि। किमट्टमेसो कीरदे ? असब्भजणदंसणेण
इन्द्रियका निरोध हो जानेपर सब इन्द्रियों का निरोध देखा जाता है, और सब इन्द्रियोंका निरोध हो जाने पर जो परिग्रहका त्याग कर राग द्वेषका निरोध कर चुका है, जो त्रिगुप्तिगुप्त है, जो पांच समितियोंसे मण्डित है, और वसूला और चन्दन में समान बुद्धि रखता है उसके प्राणोंके असंयमका निरोध देखा जाता है ।
वृक्षके मलमें निवास, निरावरण प्रदेशमें आकाशके नीचे आतापन योग, पल्यंकासन, कुक्कुटासन, गोदोहासन, अर्धपल्यंकासन, वीरासन, मृतकवत् शयन अर्थात् मतकासन तथा मकरमख और हस्तिशुंडादि आसनों द्वारा जो जीवका दमन किया जाता है, वह कायक्लेश तप है।
शंका- यह किसलिये किया जाता है ?
समाधान- शीत, वात और आतपके द्वारा; बहुत उपवासों द्वारा; तृषा, क्षुधा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यानका अभ्यास करनेके लिये किया जाता है। क्योंकि, जिसने शीतबाधा आदि और उपवास आदिको बाधाका अभ्यास नहीं किया है और जो मारणान्तिक असातासे खिन्न हुआ है उसके ध्यान नहीं बन सकता ।
ध्यान और ध्येयमें विघ्नके कारणभूत स्त्री, पशु और नपुंसक आदिसे रहित गिरिकी गफा, कन्दरा, पब्भार (गिरि-गुफा), स्मशान, शून्य घर, आराम और उद्यान आदि प्रदेश विविक्त कहलाते हैं। वहां शयन और आसनका नियम करना विविक्तशयनासन नामका तप है।
* अप्रतौ समिदिमंदियस्स', आप्रतौ 'समिदिदियस्स', ताप्रतौ । समिदियस्स' इति पाठः । शरीरेन्द्रियरागादिवृद्धिक रक्षीर-दधि-गुड-तैलादिरसत्यजनं रसपरित्याग इत्युच्यते। तत्किमर्थम् ? दुर्दान्तेन्द्रियतेजोहानि: संयमोपरोधनिवृत्तिरित्येवमाद्यर्थम् । चारित्रसार. पृ. ६०. *ताप्रतौ 'सोंडादीहि जीव ' इति पाठः । ॐ वृक्षामूलाभ्रावकाशातापनयोग-वीरासन-कुक्कुटासन-पर्यकार्धपर्यक-गोदोहन-मकरमखहस्तिशुण्डा -मृतयशयनैकपार्श्वदंडधनुशय्यादिभिः शरीरपरिखेदः कायक्लेश इत्युच्यते । आचारसार. पृ. ६०. 1 अप्रतौ बाधादब्बुव-', ताप्रतौ बाधादवुव-' इति पाठः । - प्रतिषु 'ओट्ठद्धस्स ' इति पाठः । Gध्यानाध्ययनविघ्नकरस्त्री-पश-षण्ढकादिपरिवजितगिरिगहा-कन्दर-पितवन-शन्यागारारामोद्यानादि-प्रदेशेष विविक्तेषु जन्तुपीडारहितेषु संवृत्तेषु संयतस्य शयनासनं विविक्तशय्यासनं नाम । आचारसार. पृ. ६०.
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