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छक्खंडागमे वेयणाखंड
( ५, ३, ९. सद्दणओ पुण णामफासमिच्छदि, फाससद्देण विणा भावफासपरूवणाए उवायाभावादो। फासफासं पि इच्छदि; दव्वेण विणा कक्खडादिगुणाणं अण्णेहि गुणेहि सह संबंधदसणादो। भावफासं पि इच्छदि,णाणेण परिछिज्जमाणकक्खडादिगुणाणमुवलंभादो अवसेसफासे ण इच्छदि, सगविसए तेसिमभावादो। एवं फासणयविभासणदा समता।
संपहि णाम फासणिक्खेव परूवणठें उत्तरसुत्तमागदं
जो सो णामफासो णाम सो जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा जोवस्स च अजीवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि फासे त्ति सो सव्वो णामफासो णाम ॥९॥
___णामस्स आहारभूदा जीवाजीवाणं एगाणेगसंजोगजणिदा अट्ट चेव भंगा होंति; अण्णेसिमणुवलंभादो। एदेसु अट्टसु जस्स णामं कीरदि फासे त्ति सो सव्वो फाससद्दो एकक्षेत्रस्पर्श आदिकी सिद्धि के लिये कहीं तो द्वित्व और कहीं अतीत-अनागत कालको स्वीकार करना पडता है; तभी इनका सद्भाव बनता है। यही कारण है कि यहां पर ऋजुसूत्र नयके विषय रूपसे इन पाँचोंको अस्वीकार किया है । यद्यपि गाथासूत्र में स्थापनास्पर्शका ऋजुसूत्र नयके अविषयरूपसे निर्देश नहीं किया है, किन्तु स्थापनानिक्षप ऋजुसूत्रनयका विषय न होनेसे स्थापनास्पर्शको ऋजुसूत्रनय नहीं स्वीकार करता, यह अपने आप फलित हो जाता है।
परन्त शब्द नय तो नामस्पर्शको स्वीकार करता है, क्योंकि स्पर्शशब्दके विना भावस्पर्शके कथन करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है । वह स्पर्शस्पर्शको भी स्वीकार करता है, क्योंकि द्रव्यके विना कर्कश आदि गुणोंका अन्य गुणोंके साथ सम्बन्ध देखा जाता है। भावस्पर्शको भी वह स्वीकार करता है, क्योंकि, ज्ञानसे जिन कर्कश आदि गणोंको हम जानते हैं उनका वर्तमान काल में सद्भाव पाया जाता है ।
विशेषार्थ- शब्दनय नामनिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेपको विषय करता हैं, इसीसे यहां उक्त तीन स्पर्श शब्दनयके विषयरूपसे निर्दिष्ट किये गये हैं।
शब्दनय शेष स्पर्शों को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि अपने विषयमें उन स्पर्शों का अभाव है।
इस प्रकार स्पर्शनय विभाषणताका कथन समाप्त हुआ। अब नामस्पर्शनिक्षेपका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
जो वह नामस्पर्श है वह एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और नाना अजीव, नाना जीव और एक अजीव, नाना जीव और नाना अजीव, इनमेंसे जिसका स्पर्श ऐसा नाम किया जाता है वह सब नामस्पर्श है ॥९॥
नामके आधारभूत, जीव और अजीवके एक और अनेकके संयोगसे, आठ ही भंग उत्पन्न होते हैं; अन्य भंग नहीं होते। इन आठोंमें जिसका स्पर्श ऐसा नाम रखा जाता है, वह सब
* अप्रतौ 'संपहि फाराणिक्खेव', ताप्रतौ 'संपहि (णाम) फासणिक्खेव-' इति पाठः ।
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