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अध्याय : १
कारक - विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास
किसी भी देश में भाषा के न्यूनाधिक विकास के बाद ही तद्विषयक चिन्तन का आरम्भ होता है, यदि उस देश के निवासी बुद्धि की दृष्टि से भी पर्याप्त विकसित हो गये हों । संसार भर में भारत तथा यूनान के मनीषियों में अत्यन्त प्राचीनकाल में भाषा विषयक विचार करने की क्षमता देखते हैं, यद्यपि अनुवर्ती काल में उनसे प्रभावित अन्य देशों में भी यह स्थिति संक्रान्त हुई है । यूनान की अपेक्षा भारत इस विषय में अग्रणी रहा है, क्योंकि यहाँ के आदिम ग्रन्थ ऋग्वेद में ही भाषा - विश्लेषण के संकेत हमें प्राप्त होते हैं । उसके बाद से तो उसकी अविच्छिन्न परम्परा ही चलने लगी, जिसकी परिणति आधुनिक समय से बहुत पूर्व ही हो गयी-सी लगती है । भारतवर्ष की यह परम्परा अनेक संघर्षों तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अक्षुण्ण रही, जिसका श्रेय यहाँ के निःस्वार्थ तथा ज्ञानसत् के अनुष्ठाता यजमानों को है, जिन्होंने भौतिकवाद के चमत्कार से सदा अस्पृष्ट रहकर न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से सन्तोष करते हुए ज्ञान की अग्नि सदा प्रज्वलित रखी; अपनी-अपनी प्रतिभा की समिधा, कल्पना का हव्य एवम् अनुभूतियों की आहुतियाँ देते रहे और आज हमारे समक्ष अपने रिक्थ के रूप में इतनी अधिक शास्त्र सम्पत्ति रख गये कि हम पाश्चात्य संसार के अहर्निश विकासशील चिन्तनों की झंझा के सामने ठहर सकें तथा स्वयं कुछ योगदान न कर सकने पर भी यह कह सकें कि भाषा विषयक सर्वोत्कृष्ट विचार विश्व को हमारी सबसे बड़ी देन है ।
दार्शनिक चिन्तन का ऋग्वेद में प्रारम्भ
समस्त भारतीय चिन्तनधारा का स्रोत हमें ऋग्वेद के मन्त्रों में प्राप्त होता है । यद्यपि वेद तथा उसकी व्याख्या के काल में पर्याप्त व्यवधान होने के कारण वेदार्थ के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ हैं, तथापि कतिपय स्थलों में परवर्ती काल की भाषा के आधार पर शब्दार्थ सम्बन्ध का निरूपण करना सम्भव है । व्याकरण-दर्शन की प्रथम उद्भावना हमें ऋग्वेद के वाक्सूक्त (१०।१२५ ) में उपलब्ध होती है, जिसमें वाणी को देवता के रूप में प्रतिष्ठित करके स्वयं वाग्देवी से ही उत्तम पुरुष में सूक्त की आठों ऋचाओं का आख्यात कराया गया है । वह कहती हैं कि मुझे देवताओं ने ही सर्वत्र फैलाया है, जिससे मैं अनेक स्थानों में स्थित तथा सबों में प्रविष्ट हूँ । इससे वाणी की सर्वव्यापकता सिद्ध है । जहाँ तक ब्रह्ममय संसार है, वह वाणी का ही क्षेत्र है ।
१. 'तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् । ऋग्वेद १०।१२५।३ २. 'भाव ब्रह्मविचितं तावती बाक्' । - ऋग्वेद १०1११४|५