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[ सामान्य प्रकरण सात शास्त्राभ्यास अवश्य करना । बहुरि है भव्य ! शास्त्राभ्यास करने का समय पावना महादुर्लभ है । काहे त ? सो कहिए हैं--
एकेद्रियादि अर्सझो पर्यंत जीवनि तौ मन ही नाही. । अर नारकी वेदना पीड़ित, तिर्यच विवेक रहित, देव विषयासक्त, तातै मनुष्यनि के अनेक सामग्री मिले शास्त्राभ्यास होइ । सो मनुष्य पर्याय का पावना ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि महादुर्लभ है।
तहां द्रव्य करि लोक विर्षे मनुष्य जीव बहुत थोरे हैं, तुच्छ; संख्यास मात्र ही हैं । अर अन्य जीवनि विर्षे निगोदिया अनंत हैं, और जीव असंख्याते हैं।
बहुरि क्षेत्र करि मनुष्यनि का क्षेत्र बहुत स्तोक है, अढाई द्वीप मात्र ही है। और अन्य जीवनि विर्षे एकैद्विनि का सर्व लोक हैं, औरनिका केते इक राजू प्रमाण है। बहुरि काल करि मनुष्य पर्याय विर्षे उत्कृष्ट रहने का काल स्तोर्क है, कर्मभूमि अपेक्षा पृथक्त्व कोटि पूर्व मात्र ही है । पर अन्य पर्यायनि विष उत्कृष्ट रहने का काल -- एकद्रिय विर्षे तो असंख्यात पुद्गल परिर्वतन मात्र, और और विर्ष संख्यातपल्यै मात्र है।
बैहरि भाव करि ती शुभाशुभपनी कार रहित ऐसें मनुष्य पर्याय को कारण परिणाम होने अति दुर्लभ हैं। अन्य पर्याय को कारण अशुभैरूप' वा शुभरूफ परिणाम होने सुलभ हैं। ऐसे शास्त्राभ्यास को कारण जो पर्याप्त कमभूमियों मनुष्य पर्याय, ताका दुर्लभंपनी जाना।
तहाँ सुवास, उच्चकुल, पूर्णायु, इंद्रियनि की सामर्थ्य, नीरोगपना, सुसंगति धर्मरूप अभिप्राय, बुद्धि की प्रबलता इत्यादिक का पावना उत्तरोत्तर महादुर्लभ है । सो प्रत्यक्ष देखिए है । पर इतनी सामग्री मिले बिना ग्रंथाभ्यास बनै नाहीं । सो तुम भाग्यकरि यहु अवसर पाया है ! तातें तुमको हठ करि भी तुमारे हित होने के अथि प्रेरै हैं । जैसे बने तैसें इस शास्त्र का अभ्यास करो। बहुरि अन्य जीवनि को जैसे बने तैसे शास्त्राभ्यास करावौ । बहुरि जे जीव शास्त्राभ्यास करते होइ, तिनकी अनुमोदना करहुँ । बहुरि पुस्तक लिखावना, वा पढ़ने, पढावनेवालों की स्थिरता करनी, इत्यादिक शास्त्राभ्यास की बाह्य कारण, तिनका साधन करना । जाते इनकरि भी परंपरा कार्यसिद्धि हो है वा महत्पुण्य उपजे है ।
ऐसें इस शास्त्र का अभ्यासादि विषं जीवनि को रुचिवान किया।