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[ सामान्य प्रकरण
पीड़ित जीव, तिनकी पीड़ा सही न जाय तब किंचिन्मात्र तिस पीडा के प्रतिकार से भासे - ऐसे जे विषयसुख तिन विर्षे झापात लेब है, परमार्थरूप सुख है नाहीं ।
बहुरि शास्त्राभ्यास करने से भया जो सम्यग्ज्ञान, तांकरि निपज्या जो प्रानन्य, सो सांचा सुख है । जातं सो सुख स्वाधीन है, आकुलता रहित है, काहू करि नष्ट न हो है, मोक्ष का कारण है. विषम नाहीं । जैसे खाजिन पौडै, तब सहज ही सुखी होइ, तैसें तहां इंद्रिय पोड़ने की समर्थ न होइ, तब सहज ही, सुख कौं प्राप्त हो है । तातै विषय सुख छोड़ि शास्त्राभ्यास करना । (जो) सर्वथा न छूटें तौ जेता बने तेता छोड़ि, शास्त्राभ्यास वि तत्पर रहना।
बहुरि से विवाहादिक कार्य विर्षे बड़ाई होने की कहो, सो केतेक दिन बड़ाई रहेगी ? जाकै अथि महापापारंभ करि नरकादि विषं बहुतकाल दुःख भोगना होइगा । अथवा तुझ से भी तिन कार्यनि विषं धन लगावनेवाले बहुत हैं, तासे विशेष बड़ाई भी होने की नाहीं।
बहुरि शास्त्राभ्यास से ऐसी बडाई हो है, जाकी सर्वजन महिमा करें, इंद्रादिक भी प्रशंसा करें अर परंपरा स्वर्ग मुक्ति का कारण है । तातै विवाहादिक कार्यनि का विकल्प छोड़ि, शास्त्राभ्यास का उद्यम राखना । सर्वथा न छूट तो बहुत बिकल्प न करना । ऐसें काम भोगादिक का पक्षपाती कौं शास्त्राभ्यास विर्षे सन्मुख किया । या प्रकार अन्य जीव भी जे विपरीत विचार तें इस ग्रंथ अभ्यास विर्षे अरुचि प्रगट करें, तिनकौं यथार्थ विचार से इस शास्त्र के अभ्यास विर्षे सन्मुख होना योग्य है।
इहां अन्यमती कहै है कि - तुम अपने ही शास्त्र अभ्यास करने की दृढ किया। हमारे मत विष नाना युक्ति आदि करि संयुक्त शास्त्र हैं, तिनका भी अभ्यास क्यों न कराइए ?
ताकौं कहिए है - तुमारे मत के शास्त्रनि विर्षे आत्महित का उपदेश नाहों । जाते कहीं शृगार का, कहीं युद्ध का, कहीं काम सेवनादि का, कहीं हिसादि का कथन है । सो ए तो बिना ही उपदेश सहज ही बनि रहें हैं। इनकौं तजै हित होई, ते तहां उलटे पोषे हैं, तातै तिनतै हित कैसे होइ ?
तहां वह कह है - ईश्वरने अस लीला करी है, ताकौं गावं हैं, तिसतै भला हो हैं ।
तहाँ कहिये है -- जो ईश्वर के सहज सुख न होगा, तब संसारीवत् लीला करि सुखी भया । जो (वह) सहज सुखी होता तो काहेको विषयादि सेवन वा
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