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[ सामान्य प्रकरण बोवै तौ ताकी फल की प्राप्ति होइ । वैसे तू भी जो अपनी शक्ति अनुसारि व्याकरणादिक का अभ्यास ते थोरी बहुत बुद्धि को संबारि यावत् मनुष्य पर्याय वा इंद्रियनि की प्रबलता इत्यादिक वर्ते हैं, तायत् समय विर्षे तत्वज्ञान को कारण जे शास्त्र, तिनिका अभ्यास करेगा तो तुझको सम्यक्त्वादि की प्राप्ति होगी।
बहरि जैसे अयाना खितहर हलादिक तें खेत कौं संवारता संवारता ही समय कौं खोवै, तौ ताकौं फलप्राप्ति होने की नाही, वृथा ही खेदखिन्न भया । तैसें तू भी जो व्याकरणादिक तें बुद्धि कौं संवारता संवारता ही समय खोवेगा तौ सम्यक्त्वादिक की प्राप्ति होने की नाहीं । वृथा ही खेदखिन्न भया । बहुरि इस काल विर्षे आयु बुद्धि आदि स्तोक हैं, तातै प्रयोजनमात्र अभ्यास करना, शास्त्रनि' का तौ पार है नाहीं। बहुरि सुनि ! केई जीव व्याकरणादिक का ज्ञानबिना भी तत्त्वोपदेशरूप भाषा शास्त्रनि करि, वा उपदेश सुनने करि, दा सीखने करि तत्त्वज्ञानी होते देखिये हैं । अर केई. जीव केवल व्याकरणादिक का ही अभ्यास विर्षे जन्म गमाव हैं, अर तत्त्वज्ञानी न होते देखिये हैं।
___ बहुरि सुनि ! व्याकरणादिक का अभ्यास करने ते पुण्य न उपजै है । धर्मार्थी होइ तिनका अभ्यास करै तौ किचित् पुण्य उपज । बहुरि तत्त्वोपदेशक शास्त्रनि का अभ्यास ते सातिशय महत् पुण्य उपजै है ! तातें भला यहु है - असे तत्त्वोपदेशक शास्त्रानि का अभ्यास करना । ऐसे शब्द शास्त्रादिक का पक्षपाती को सम्मुख किया ।
बहुरि अर्थ का पक्षपाती कहै है. कि - इस शास्त्र का अभ्यास किए कहा है ? सर्व कार्य धन ते बने हैं, धन करि ही प्रभावना आदि धर्म निपज हैं। धनवान के निकट अनेक पंडित आनि (आय) प्राप्त होइ । अन्य भी सर्वकार्यसिद्धि होइ । ताते धन उपजावने का उद्यम करना । . ताकौ कहिए है • रे पापी ! धन किछू अपना उपजाया तौ न हो है । भाग्य ते
हो है, सो ग्रंथाभ्यास प्रादि धर्म साधन तें जो पुण्य लिपजै, ताही का नाम भाग्य हैं। बहुरि धन होना है तो शास्त्राभ्यास किए कैसे न होगा ? अर न होना है तो शास्त्राभ्यास न किए कैसे होगा? तातें धन का होना, न होना तो उदयाधीन है। शास्त्राभ्यास विर्षे काहे की शिथिल हजै । बहुरि सुनि ! धन है सो तो विनाशीक है, भय संयुक्त है, पाप ते निपज है, नरकादिक का कारण है ।