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[ सामान्य प्रकरही.
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बहुरि जे स्वानुभव दशा कौं न प्राप्त भए, वा स्वानुभवदशा त छुटि सविकल्प दंशा कौं प्राप्त भए ऐसे अनुस्कृष्ट जो अशुद्ध स्वभाव, तिहि विष तिष्ठते जीव, तिनको व्यवहारनय प्रयोजनवान है। सोई प्रात्मख्याति अध्यात्मशास्त्र विर्षे कहा है
सुखो सुद्धादेसो, णादव्यो परमभावदरसोहि । . ... ववहारदेसिदो पुरण जे दु अपरमेट्टिवा भावे ॥१ . . इस सूत्र की व्याख्या का अर्थ विचारि देखना। ... , बहुरि सुनि ! तेरे परिणाम स्वरूपानुभव दशा विर्षे तौ प्रवर्ते नाहीं। अर विकल्प जानि गुणस्थानादि भेदनि का विचार न करेगा तो तू इतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट होय अशुभोपयोग ही (विर्षे) प्रवर्तगा, तहां तेरा बुरा होयगा ।
बहुरि सुनि ! सामान्यपनें तो वेदांत आदि शास्त्राभासनि विर्षे भी जीय का स्वरूप शुद्ध कहैं हैं, तहां विशेष जाने बिना यथार्थ-अयथार्थ का निश्चय कैसे होय ? ताते गुणस्थानादि विशेष जाने जीव की शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र अवस्था का ज्ञान होइ, तब निर्णय करि यथार्थ का अंगीकार करैः । बहुरि सुनि ! जीव का गुण ज्ञान है, सो विशेष जाने प्रात्मगुगत प्रकट होइ, अपना श्रद्धान भी हद होय । जैसें सम्यक्त्व है, सो केवलज्ञान भए परमावगाट नाम पाये है। तात विशेष जानना। -
बहुरि यह कहै है – तुम कहा सो सत्य, परंतु करणानुयोग से विशेष जाने भी द्रव्यलिंगी अनि अध्यात्म श्रद्धान बिना संसारी ही रहै। अर अध्यात्म अनुसारि तिर्यंचादिक के स्तोक श्रद्धान ते भी सम्यवत्व हो है। वा तुषमाष भिन्न इतना ही श्रद्धान तै शिवभूति मुनि मुक्त भया । ताते हमारी तो बुद्धि तें विशेष विकल्पचि का साधन होता नाहीं । प्रयोजनमात्र अध्यात्म अभ्यास करेंगे। __ याकौं कहिये है - जो द्रव्यलिंगी जैसें करणानुयोग ते विशेष जान है, तैसें अध्यात्मशास्त्रनि का भी ज्ञान वाक होय, परंतु मिथ्यात्व के उदय ते अयथार्थ साधन करै तौं शास्त्र कहा करै ? शास्त्रनि विर्षे तौ परस्पर विरुद्ध है नाहीं। कैसे ? सो कहिये है - करणानुयोगशास्त्रनि विर्षे भी अंर अध्यात्मशास्त्रनि विर्षे भी रागादिक भाव प्रात्मा के कर्म निमित्त ते उपजे कहे । द्रव्यलिंगी तिनका पाप कर्ता हुवा प्रवर्ते है । बहुरि शरीराश्रित सर्व शुभाशुभ क्रिया पुद्गलमय कहीं। द्रव्यलिंगी अपनी जानि बिनविर्षे स्यजन, ग्रहण बुद्धि करै है । बहुरि सर्व ही शुभाशुभ भाव, आस्रव बंध के कारण कहे। द्रव्यलिंगी शुभभावन को संवर, निर्जरा, मोक्ष का कारण मान है । बहुरि १. समयसार, गाथा १२