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[ सामान्य प्रकर
बहुरि इहां कोऊ तर्क करें कि कोई जीव शास्त्र अध्ययन तो बहुत करें है । अर विषयादि का त्यागी न हो हैं, तार्क शास्त्र अध्ययन कार्यकारी है कि नाही ? जो है तो महंत पुरुष काहेको विषयादिक तजें, घर नाहीं हैं तो ज्ञानाभ्यास का महिमा कहां रह्या ?
ताका समाधान - शास्त्राभ्यासी दोय प्रकार हैं, एक लोभार्थी, एक धर्मार्थी । तहां जो अंतरंग अनुराग बिना ख्याति-पूजा- लाभादिक के अथि शास्त्राभ्यास करें, सो लोभार्थी है, सो विषयादिक का त्याग नाही करें है । अथवा ख्याति, पूजा, लाभादिक अथिविषयादि का त्याग भी करें है, तो भी ताका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नाहीं ।
बहुरि जो अंतरंग अनुराग से आत्म हित के अथि शास्त्राभ्यास करें है, सो धर्मार्थी है । सो प्रथम तो जैन शास्त्र ऐसे हैं जिनका धर्मार्थी होइ अभ्यास करें, सो विषयादिक का त्याग करें ही करें। तार्क लौ ज्ञानाभ्यास कार्यकारी है ही । बहुरि कदाचित् पूर्वकर्म का उदय की प्रबलता तें न्यायरूप विषयादिक का त्याग न बने है तौ भी ताकेँ सम्यग्दर्शन, ज्ञान के होने ते ज्ञानाभ्यास कार्यकारी हो है । जैसे असंयत गुणस्थान विषैदिक को संभव है ।
sri प्रश्न - जो धर्मार्थी होइ जैन शास्त्र अभ्यास, ताकै विषयादिक का त्याग न होइ सो यहु तौ बने नाहीं । जातै विषयादिक के सेवन परिणामनि तें हो है, परिणाम स्वाधीन हैं ।
तहाँ समाधान - परिणाम ही दोय प्रकार है । एक बुद्धिपूर्वक, एक प्रबुद्धिपूर्वक | तहां अपने अभिप्राय के अनुसारि होइ सो बुद्धिपूर्वक । अर देव - निमित्त तं अपने अभिप्राय तें अन्यथा होइ सो अबुद्धिपूर्वक जैसे सामायिक करतें धर्मात्मा का अभिप्राय ऐसा है कि मैं मेरे परिणाम शुभरूप राखों । तहां जो शुभपरिणाम ही हो सो तो बुद्धिपूर्वक । र कर्मोदय ते स्वयमेव अशुभ परिणाम होइ, सो अबुद्धिपूर्वक जानने । तैसे धर्मार्थी होइ जो जैन शास्त्र अभ्यासे है ताको अभिप्राय तौ विषयादि का त्याग रूप वीतराग भाव का ही होइ, तहां वीतराग भाव होइ, तो बुद्धिपूर्वक है । यर चारित्रमोह के उदय ते सराग भाव हो तो अबुद्धि पूर्वक है । तातें बिना वश जे सरागभाव हो हैं, तिनकरि ताकेँ विषयादिक की प्रवृत्ति देखिये है । जातें बाह्य प्रवृत्ति को कारण परिणाम है।
इहां तर्क- जो ऐसे हैं तो हम भी विषयादिक सेवेंगे अर कहेंगे - हमारे उदयाधीन कार्य हो है ।