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[ सामान्य प्रकरण शास्त्र विष कथन कहीं सामान्य है, कहीं विशेष है, कहीं सुगम है, कहीं कठिन है; तहां जो सर्व अभ्यास बने तो नीकै ही है, पर जो न बने तो अपनी बुद्धि के अनुसार और बने देखा ही अपास परी । अपने उपाय में आलस्य करना नाहीं ।
बहुरि से कहा - प्रथमानुयोग संबंधी कथादिक सूनै पाप से डर हैं, पर धर्मानुरागरूप हो हैं।
सो तहां तो दोऊ कार्य शिथिलता लीए हो हैं । इहां पाप-पुण्य के कारणकार्यादिक विशेष जानने ते ते दोऊ कार्य दृढता लिए हो हैं । ताते याका अभ्यास करना । ऐसें प्रथमानुयोग के पक्षपाती कौं इस शास्त्र का अभ्यास विर्षे सन्मुख कीया।
अब चरणानुयोग का पक्षपाती को है कि- इस शास्त्र विष कद्या जीव-कर्म का स्वरूप, सो जैसे है तैसें है ही, तिनिको जानें कहा सिद्धि हो है ? जो हिंसादिक का त्याग करि व्रत पालिए, वा उपवासादि तप करिए, बा अरहंतादिक की पूजा, नामस्मरण' प्रादि भक्ति करिए, वा दान दीजिए, वा विषयादिक स्यों उदासीन हूज इत्यादि शुभ कार्य करिए तो प्रात्महित होइ ! तातै इनका प्ररूपक चरणानुयोग का उपदेशादिक करना ।
ताकौं कहिए है - हे स्थूलबुद्धि ! ते प्रतादिक शुभ कार्य कहे, ते करने योग्य । ही हैं । परंतु ते सर्व सभ्यत्व विना अस है जैसे अंक बिना बिंदी । पर जीवादिक का स्वरूप जाने बिना सम्यक्त्व का होना ऐसा जैसे बांझ का पुत्र ! तातें जीवादिक जानने के अथि इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना । बहुरि से जैसे व्रतादिक शुभ कार्य कहे अर तिनितें पुण्यबंध हो है । तैसें जीवादिक का स्वरूप जाननेरूप ज्ञानाभ्यास है, सो प्रधान शुभ कार्य है । यात सातिशय पुण्य का बंध हो है। बहुरि तिन व्रतादिकनि विर्षे भी ज्ञानाभ्यास की ही प्रधानता है, सो कहिए है
जो जीव प्रथम जीव समासादि जीवादिक के विशेष जान, पीछे यथार्थ ज्ञान करि हिंसादिक करें त्यागि व्रत धार, सोई व्रती है । बहुरि जीवादिक के विशेष जाने बिना कथंचित् हिंसादिक का त्याग तें आपकौं व्रती माने, सो प्रती नाहीं । ताते प्रत पालने विष ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है।
बहुरि तप दोय प्रकार है - एक बहिरंग, एक अंतरंग । तहां जाकरि शरीर का दमन होइ, सो बहिरंग तप है, अर जात मन का दमन होइ, सो अंतरंग तप है । इनि विर्षे बहिरंग तप से अंतरंग तप उत्कृष्ट है। सो उपवासादिक तौ बहिरंग तप है । ज्ञानाभ्यास अंतरंग तप है। सिद्धांत विर्षे भी छह प्रकार अंतरंग तपनि वि चौथा स्वाध्याय नाम तप का है । तिसत
--jrati
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