________________
सभ्यशामतिका पोठिका। शुद्धभाव संवर, निर्जरा, मोक्ष का कारण कहा, ताकौं व्यलिंगी पहिचान ही माहीं । बहुरि शुद्धात्मस्वरूप मोक्ष कह्या, ताका द्रव्यलिंगी के यथार्थ ज्ञान नाहीं । ऐसे अन्यथा साधन करै तौ शास्वनि का कहा दोष है ?
बहुरि ते तिर्यंचादिक के सामान्य श्रद्धान ते कार्यसिद्धि कही, सो उनके भी अपना क्षयोपशम अनुसारि विशेष का जानना हो हैं । अथवा पूर्व पर्यायनि विर्षे विशेष धीरः था, जिस संस्कार के बल ते हो हैं । बहुरि जैसे काहने कहीं गडचा धन पायर, सो हम भी ऐसे ही पावैगे, ऐसा मानि सब. ही कौं व्यापारादिक का त्यजम न करना । तैसें काहून स्तोक श्रद्धान ते ही कार्य सिद्ध किया तो हम भी ऐसे ही कार्य सिद्धि करेंगे - ऐसे मानि सर्व ही को विशेष अभ्यास का त्यजन करना योग्य नाही, जाते यह राममार्ग नाहीं । राजमार्ग तो बहु ही है - नानाप्रकार विशेष जानि तत्त्वनि का निर्णय भए ही कार्यसिद्धि हो हैं। . . ' बहुरि से कहा, मेरी बुद्धि में विकल्पसाधन होता नाहीं, सो जेता बने तेता ही अभ्यास कर । बहुरि तू पापकार्य विषं तो प्रवीण, पर इस अभ्यास विर्षे कहै. मेरी बुद्धि नाहीं, सो यहु लौ पापी का लक्षरण है ।
ऐसे द्रव्यानुयोग का पक्षशती कौं इस शास्त्र का अभ्यास विर्ष सन्मुख कीया ! अय अन्य विपरीत विचारवालों कौं समझाइए है ।
तहां शब्द शास्त्रादिक का पक्षपाती बोल है कि - व्याकरण, न्याय, कोश, छंद, अलंकार, काव्यादिक ग्रंथनि का अभ्यास करिए तो अनेक ग्रंथान का स्वयमेव ज्ञान होय वा पंडितपना प्रगट होय । अर इस शास्त्र के अभ्यास तें तो एक याही का ज्ञान होय वा पंडितपना विशेष प्रकट न होय, तातै शब्द-शास्त्रादिक का अभ्यास करना।
ताकौं कहिये है - जो तु लोक विर्षे ही पंडित कहाया चाहै है तो तू तिन ही का अभ्यास किया करि । पर जो अपना कार्य किया चाहै है तो ऐसे जैनग्रन्थनि का अभ्यास करना ही योग्य है । बहुरि जैनी तो ज़ीवादिक तत्त्वनि के निरूपक जे जैनग्नन्थ तिन ही का अभ्यास भए पंडित मानये ।
बहरि वह कह है कि -- मैं जैनग्रंथनि का विशेष ज्ञान होने ही के अधिक व्याकरणादिवनि का अभ्यास करौं हौं । ..ताकौं काहिए है - ऐसे है तो भले ही है, परंतु इतना है जैसे स्याना खितहर अपनी शक्ति अनुसारि हलादिक तं थोड़ा बहुत · खेत कौं संवारि समय विर्षे बीज