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-सभ्यरज्ञानन्तिकर पीठिका ]
उत्कृष्ट व्युत्सर्ग पर ध्यान ही है । तातै तप करने विधं भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है। बहुरि जीवादिक के विशेषरूप गुणस्थानादिकनि का स्वरूप जान ही अरहंतादिकनि का स्वरूप नीकै पहिचानिए है, वा अपनी अवस्था पहिलानिए है। ऐसी पहिचानि भए जो तीव्र अंतरंम भक्ति प्रकट हो है, सोई बहुत कार्यकारी है। बहुरि जो कुलक्रमादिक ते भक्ति हो है, सो किंचिन्मात्र ही फल की दाता है । तातै भक्ति विर्षे भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है ।
बहुरि दान चार प्रकार है -तिनिविर्षे आहारदान, औषधदान, अभयदान तौ तात्कालिक क्षुधा के दुःख कौं वा रोग के दुःख कौं, वा मरणादि भय के दुःख ही कौं दूर करै है । पर ज्ञानदान है सो अनंत भव संतान संबंधी दुःख दूर करने कौं कारण है । तीर्थकर, केवली, प्राचार्यादिकनि के भी शानदान की प्रवृत्ति है । तातै ज्ञानदान उत्कृष्ट है, सो अपने ज्ञानाभ्यास होइ तो अपना भला कर, पर अन्य जीवनि कौं ज्ञानदान देव । ज्ञानाभ्यास बिना शानदान देना कस होइ ? ताते दान विर्षे भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है।
बहुरि जैसे जन्म से ही केई पुरुष लिंगनि के घर गए - तहां तिन ठिगनि कौं अपने मान हैं । बहुरि कदाचित् कोऊ पुरुष किसी निमित्त स्यों अपने कुल का वा , लिंगनि का यथार्थ ज्ञान होने ते ठिगनि स्यों अंतरंग विर्ष उदासीन भया, तिनिकों पर जानि संबंध छुड़ाया चाहै है। बाह्य जैसा निमित्त है तैसा प्रवत्तँ है । बहुरि कोऊ पुरुष तिन ठिगनि कौं अपना ही जानै है अर किसी कारण से कोऊ ठिग स्यों अनुरागरूप प्रवर्ते है । कोई ठिग स्यों लड़ि करि उदासीन भया श्राहारादिक का त्यागी होइ है ।
तैसें अनादि ते सर्व जीव संसार विर्षे प्राप्त हैं, तहां कर्मनि की अपने माने हैं ! बहुरि कोइ जीव किसी निमित्त स्यों जीव का अर कर्म का यथार्थ ज्ञान होने से कर्मनि स्यों उदासीन भया, तिनिकों पर जानने लगा, तिनस्यों संबंध छुड़ाया चाहै है। बाह्य जैसे निमित्त है तैसें वत्त है। ऐसें जो ज्ञानाभ्यास तें उदासीनता होइ
सोई कार्यकारी है । बहुरि कोई जीव तिन कर्मनि कौं अपने जान है । पर किसी . कारण तें कोई शुभ कर्म स्यों अनुराग रूप प्रयतॆ है । कोई अशुभ कर्म स्यों दुःख का कारण जानि उदासीन भया विषयादिक का त्यागी हो है । ऐसें ज्ञान बिना जो उदासीनता होई सो पुण्यफल की दाता है, मोक्ष कार्य कौं न साधे है । तातै उदासीनता विष भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है । याही प्रकार अन्य भी शुभ कार्यनि विर्षे ज्ञानाभ्यास ही प्रधान जानना । देखो ! महासुनीनि के भी ध्यान-अध्ययन दोय ही कार्य मुख्य हैं । तात शास्त्र अध्ययन ते जीव-कर्म का स्वरूप जानि स्वरूप का ध्यान करना।
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