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मधुराजा का प्रबन्ध
श्री संवेगरंगशाला देव हैं और साधु महाराज मेरे गुरु हैं ऐसी मेरी प्रतिज्ञा थी और अभी भी वही मेरी प्रतिज्ञा सविशेषतया दृढ़ बनें। इन व्रतों को भी पुनः विशेष रूप से स्वीकार करता हूँ तथा पूर्व में मुझे समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव था और वर्तमान में भी आपके समक्ष मेरा वह मैत्रीभाव विशेष रूप में दृढ हो। ऐसा करके फिर सर्व जीवों को मैं खमाता हूँ वे मुझे क्षमा करें, उनसे मेरी मैत्री ही है, उनके ऊपर मन से भी द्वेष नहीं है, इस तरह क्षमापना करे। तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के प्रति राग उसका भी मैंने सर्वथा त्याग किया है, शरीर के राग का भी त्याग किया है। इस तरह राग का त्यागकर भव से उद्विग्न बनकर वह त्रिविध अथवा चतुर्विध आहार का साकार या अनाकार पच्चक्खाण से त्याग करे। फिर अत्यन्त भक्तिपूर्वक वह पंचपरमेष्ठि मन्त्र का जाप करते हुए सद्ध्यान पूर्वक अपना आयुष्य पूर्ण करें। इस संक्षिप्त आराधना में मधुराजा का और दूसरा निश्चल प्रतिज्ञा वाले सुकोशल मुनि का दृष्टान्त कहा है ।।६४१।। वह इस प्रकार से :
मधुराजा का प्रबन्ध जीवाजीवादि तत्त्वों को विस्तारपूर्वक जाननेवाला और परम समकित दृष्टि युक्त, इतना ही नहीं, किन्तु शास्त्र में श्रावक के जितने गुण कहे हैं, उन सभी गुणों से युक्त मथुरा नगरी में मधु नाम का राजा था, वह नाम धन्य राजा एक समय क्रीड़ा के लिए परिमित सेना के साथ उद्यान में गया। वहाँ क्रीड़ा करते उसे रामदेव के भाई द्वारा गुप्त रूप में जानकर शत्रुजय नामक प्रतिशत्रु ने महान् सेना से घेर लिया, और आक्षेपपूर्वक कहा कि यदि जीने की इच्छा हो तो भुजबल का मद छोड़कर मेरी आज्ञा को मस्तक पर चढ़ा। उस समय मधुराजा बोला-अरे पापी! ऐसा बोलकर तूं अभी क्यों जीता है? ऐसा तिरस्कार करते भृकुटी चढ़ाकर भयंकर बनकर बख्तर रहित शरीर वाला दर्प रूपी उद्धत श्रेष्ठ हाथी ऊपर चढकर वह जीवन से निरपेक्ष होकर उसके साथ युद्ध करने लगा। उस युद्ध में हाथियों के गले कटने लगे, उसमें महावत हाथियों के ऊपर से नीचे गिरने लगे, अग्रेसर हाथी भी उसमें से पीछे हटने लगे, उसमें हाथी रथ आदि के बन्धन टूट रहे थे, योद्धाओं के जहाँ दाँत से होंठ कुचलते जाते थे, जहाँ श्रेष्ठ योद्धा मर रहे थे, श्रेष्ठ तलवार उसमें टूट-फूट रही थीं। डरपोक लोग वहाँ से भाग रहे थे, अंगरक्षकों का उसमें छेदन हो रहा था, भाले की नोंक से जहाँ परस्पर कॉख (बगल) भेदन हो रहे थे, वहाँ बहुत रथ टूट रहे थे, वहाँ परस्पर भयंकर प्रहार हो रहे थे, वह धरती सर्वत्र रुधिर से लाल बन गयी थी, और कटे हुए मस्तकों से भयंकर दिखने लगी थी। इस तरह युद्ध द्वारा मधुराजा ने शत्रु पक्ष को दुःखी बना दिया, परंतु शत्रुओं के द्वारा लगातार शस्त्रों का समूह फेंकने से घायल अंग बना हुआ, हाथी की पीठ के ऊपर बैठा युद्ध भूमि में से निकलकर मधुराजा अत्यन्त सत्त्वशाली मन से वैरागी बनकर मान और शोक से युक्तायुक्त विचार करने लगा कि
बाह्य दृष्टि से राज्य भोगते हुए भी निश्चय से श्री जिन-वचन रूपी अमृत द्वारा वासित मेरे मन में यह मनोरथ था कि सैंकड़ों जन्मों की परम्परा का कारणभूत राज्य को आज त्याग करूँ, कल छोड़कर और मोक्ष में हेतुभूत सर्वज्ञ कथित दीक्षा को ग्रहण करूँ, फिर उसे निरतिचार युक्त पालन करूँ, अन्तकाल में विधि अनुसार निष्पाप होने के लिए चार शरण स्वीकारकर, दुष्कृत निन्दा और सुकृत अनुमोदना आदि आराधना विधिपूर्वक करूँगा, परन्तु अभी यहाँ पर प्रासुक-शुद्ध भूमि नहीं है, संथारे की सामग्री नहीं है, वैसे निर्यामक भी नहीं है, अहा हा! अकाल में आकस्मिक मेरी यह कैसी अवस्था हो गयी है? अथवा ऐसी अवस्था में मुझे अब लम्बा विचार करने से क्या लाभ है? हाथी की पीठ पर ही मेरा संथारा हो, मेरी ही आत्मा मेरा निर्यामक बनें। ऐसा चिंतनकर उसी समय मधुराजा ने द्रव्य, भाव, शस्त्रों का त्याग किया और उसी क्षण में आत्मा को परम संवेग में
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