________________ सदश००००० आत्मा के तीन रुप है, बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा अनंत काल से आत्मा बहिरात्म भाव में रमण करता हुआ चारों गति के 84 लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है / भवितव्यता की परिपक्वता के समय पर शुभ निमित्तों की प्राप्ति होती है / इन शुभ निमित्तों में सर्व श्रेष्ठ निमित्त है जिनेश्वर भगवंत द्वारा प्ररूपित जिनशासन की प्राप्ति / जिनशासन की प्राप्ति द्रव्य से हो जाने पर ही भाव से जिन शासन का परिणमन होता है, तब आत्मा अंतरात्म भाव में रमण करने लगता है / अतंरात्म भाव की रमणता को सतत जागृत रखने के लिए संवेग रस के पान की प्रवृत्ति अति आवश्यक है / अतः यह संवेग रंग शाला ग्रंथ संवेगरस की प्यास जगाने, संवेग रस की प्यास की तृप्ति एवं संवेग में आगे कदम बढ़ाते हुए अंतरात्म भाव से परमात्म भाव के प्रकटीकरण में सहायक सिद्ध होगा। आवश्यक है आप इसे मनन पूर्वक पढ़ें.... "ज्ञान दान आत्मा के उत्थान हेतु जो शिक्षा दी जाय वह ज्ञानदान.... सुसंस्कार पोषक जो शिक्षा दी जाय वह ज्ञान दान.... सद्ज्ञान के साधनो की पूर्ति करना ज्ञानदान है.... सदज्ञानियों का विनय, बहुमान एवं भक्ति करना भी परंपरा से ज्ञानदान है, सद्ज्ञान लिखना, लिखवाना, छपवाना भी ज्ञानदान है... श्रद्धा अमृत है, श्रद्धा द्वारा ही श्रद्धावान श्रद्धेय स्वरूप को प्राप्त करता है / यह एक सम्यग्दृष्टि है / इसी दृष्टि द्वारा साधक दान, शील, तप और भाव में निमज्जित होकर अमरत्व-मोक्षनगर के महापथ पर अग्रसरित होता है / गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित साहित्य जैन धर्म की मूलभूत मान्यताओं का प्रचार-प्रसार के सिद्धांत को लेकर ही प्रकाशित किया जा रहा है। आप तक साहित्य निःशुल्क पहुँचाया जा रहा है / आप इसे पढ़ते ही होंगे / पढ़कर आप इसे दूसरों से पढ़वाने का कार्य भी करते होंगे / इस साहित्य के वांचन मनन द्वारा आप सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर शिव पद प्राप्त करें यही..... -जयानंद Mesco Prints: -080-22380470 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only