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श्री संवेगरंगशाला
'ग्रंथकार की प्रशस्ति अंदर सुंदर चरण, जंघा, कटिभाग, गरदन और मुख के आभूषण से अनेक प्रकार की विलास करने वाली पुतलियों के समूह को अपने मुकुट समान धारण करता है। उस पार्श्व ठाकुर की महादेव को प्रिय गोरी के समान प्रिय प्रशस्त आचार की भूमि सदृश स्वजन वत्सला उत्तम धंधिका नाम की पत्नी थी। उन दोनों के तुच्छ जीभ रूपी लता वाले मनुष्य के मान को विस्तार करने में चतुर लोकपाल समान पाँच पुत्र हुए जो श्री जिन पूजा, मुनिदान और नीति के पालन से प्रकट हुई शरदचंद्र तथा मोगर के पुष्पों के समान उज्ज्वल और निर्मल कीर्ति आज भी विस्तृत है।
उस पाँच में प्रथम नन्नुक महत्तम ठाकुर, दूसरा बुद्धिमान लक्ष्मण ठाकुर और तीसरा इन्द्र के समान सत्यवादी पुण्यशाली आनंद महत्तम ठाकुर था। उसकी वाणी रस से मिसरी सदृश विस्तार वाली है, चित्तवृत्ति अमृत की तुलना करने वाली है और उसका सुंदर आचरण शिष्टजनों के नेत्रों को उत्तम कूर्पर के अंजन के समान हमेशा शीतल करता है। अर्थात् सर्व अंग सुंदर थे। इसके अतिरिक्त चौथा पुत्र धनपाल ठाकुर और पाँचवाँ पुत्र नागदेव ठाकुर था और उसके ऊपर शील से शोभने वाली श्रीदेवी नाम से एक पुत्री ने जन्म लिया था। इन पाँचों पुत्रों में आनंद महत्तम को क्रमशः दो पत्नियाँ हुईं, जैसे पृथ्वी धान्य और पर्वत रूप संपत्ति को धारण करती है, वैसे प्रशस्त शियल की संपत्ति को धारण करने वाली विजयमती थी। दूसरी-भिल्लमाल कुलरूपी आकाश चंद्र समान शोभित सौहिक नामक श्रावक था उसे ज्योत्स्ना समान सम्यक् नीति की भूमिका लखुका (लखी) नामक पत्नी थी। उनको सौम्य कांति वाला छड्डक नाम से बड़ा पुत्र और मति तथा बुद्धि सदृश राजीनी और सीलुका दो पुत्रियाँ थीं। उसमें विनयवाली वह राजीनी को विधिपूर्वक मंत्री आनंद महत्तम से विवाह किया। उसकी पतिव्रता को देखकर लोग सीतादि महासतियों को याद करते हैं। इस मंत्री आनंद महत्तम को विजयमती से पृथ्वी में प्रसिद्ध और राजमान्य शरणित ठाकुर नामक पुत्र हुआ। वह रोहणाचल की खान के मणि समान तेजस्वी और अपने गोत्रों का अलंकार स्वरूप और हांसी रहित था। उसे धाउका नामक बहन थी। वह शांत होने के साथ सतीव्रत में प्रेम रखने वाली और सर्व को सुंदर उत्तर देने वाली तथा चतुर थी। राजीनी ने भी श्रेष्ठ निष्कलंक और स्वजन प्रिय पुत्र को जन्म दिया, उसका नाम 'पूर्ण प्रसाद' रखा। वह अपने भाई शरणिन को अति प्रिय था, तथा वह स्वयं पूज्यों के प्रति नम्र था और इससे राम, लक्ष्मण के समान बढ़ती मैत्रीभाव-हितचिंता वाले थे। राजीनी को कोमल भाषी और हंसनी जैसे सदा जलाशय में रागी समान वह देव स्थान में प्रेम रखने वाली पूर्ण देवी नामक पुत्री को भी जन्म दिया।
फिर किसी एक दिन उस आनंद महत्तम ने गुरु महाराज के पास में मुमुक्षुओं को मोक्ष प्राप्त कराने वाला उत्तम श्रृत और चारित्र रूप धर्म को सम्यक् रूप में सुना। उसमें भी श्री जिनेश्वर ने ज्ञान रहित क्रिया करने से जीवन की सफलता नहीं मानी है. इसलिए सर्व दानों में उस ज्ञान दान को प्रथम कहा है और भी कहा है कि जो उत्तम पुस्तक शास्त्रादि की रक्षा करता है अथवा दूसरों को लिखाकर ज्ञान दान करता है, वह अवश्यमेव मोह अंधकार का नाश करके केवलज्ञान द्वारा जगत को सम्यग् जानकर जन्म-मरणादि संसार से मुक्त हो जाता है। जो यहाँ पर जैनवाणी-आगम साहित्य को लिखाता है वह मनुष्य दुर्गति, अंधा, निर्बुद्धि, गूंगा और जड़ या शून्य मन वाला नहीं होता है। इसे सुनकर महत्तम आनंद ने अपनी पत्नी राजीनी के पुण्य के लिए मनोहर यह संवेगरंगशाला को ताड़पत्र के ऊपर लिखवाई है। जहाँ तक सिद्धि रूपी राजमहल, अरिहंत रूपी राजा, अनुपम ज्ञान लक्ष्मी रूपी उनकी पत्नी, सिद्धांत के वचन रूपी न्याय, श्री-शोभा अथवा संपत्ति तथा उसके त्याग रूप
और उसके साधन रूप प्राप्त करने वाले गहस्थ धर्म दःख को प्राप्त करने वाला निर्गणी-पापी के लिए घम्मा, वंशा आदि सात कैदखाना (नरक) और गुणीजन के लिए स्वर्ग तथा मोक्ष धाम, अतिरिक्त नियोग-नौकर और साम्राज्य ये भाव इस जगत के हैं. वहाँ तक यह ग्रंथ प्रभाव वाला बनें।
।। इति शुभम् ।। 418
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