Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 330
________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला ( ४ ) - (५) राग और द्वेष :इस प्रमाद को भी पूर्व में राग द्वेष पाप स्थानक के द्वार में कहा गया है, इसलिए हे क्षपक मुनि ! तूं उसका भी अवश्य त्याग कर। क्योंकि इसके बिना जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता है, या सम्यक्त्व प्राप्त करने पर वह संवेग को प्राप्त नहीं करता और विषय सुखों में राग करता है वह दोष रागद्वेष का कारण है। बार-बार उपद्रव करने वाला समर्थ शत्रु ऐसा अहितकर नहीं उतना निरंकुश राग और द्वेष अहित करता है। राग-द्वेष इस जन्म में श्रम, अपयश और गुण का विनाश करते हैं तथा परलोक में शरीर और मन में दुःख को उत्पन्न करते हैं। धिक्कार है । अहो कैसा अकार्य है कि राग, द्वेष से असाधारण अति कड़वा फल देता है, ऐसा जानते हुए भी जीव उसका सेवन करता है। यदि राग-द्वेष नहीं होते तो कौन दुःख प्राप्त करता ? अथवा सुखों से किसको आश्चर्य होता? अथवा मोक्ष को कौन प्राप्त नहीं करता? इसलिए बहुत गुणों के नाशक सम्यक्त्व और चारित्र गुणों के विनाशक पापी राग, द्वेष के वश नहीं होना चाहिए । (६) श्रुति भ्रंश :― यह प्रमाद भी स्व- पर उभय को विकथा कलह आदि विघ्न करने के द्वारा होता है। श्री जिनेश्वर की वाणी के श्रवण में विघात करने वाला जानना । यह श्रुति भ्रंश कठोर उत्कट ज्ञानावरणीय कर्म बंध का एक कारण होने से शास्त्र के अंदर ध्वजा समान परम ज्ञानियों ने उसे महापाप रूप में बतलाया है। (७) धर्म में अनादर :- यह प्रमाद का ही अति भयंकर भेद है। क्योंकि धर्म में आदर भाव से समस्त जीवों को कल्याण की प्राप्ति होती है। बुद्धिमान ऐसा कौन होगा कि जो मुसीबत में चिंतामणि को प्राप्त करके कल्याण का एक निधान रूप उस धर्म में अनादर करनेवाला बनेगा? अतः धर्म में सदा सर्वदा आदर सत्कार करें। (८) मन, वचन, काया का दुष्प्रणिधान :- यह भी सारे अनर्थ दंड का मूल स्थान है। इसे सम्यग् रूप से जानकर तीन सुप्रणिधान में ही प्रयत्न करना चाहिए । । ७४८२ ।। इस तरह मद्य आदि अनेक प्रकार के प्रमाद को कहा है। वह सद्धर्म रूपी गुण का नाशक और कुगति में पतन कराने वाला है। इस संसार रूपी जंगल में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित जीवों की जो भी दुःखी अवस्था होती है, वह सर्व अति कटु विपाक वाला, जन्मान्तर में सेवन किया हुआ पापी प्रमाद का ही विलास जानना । अति बहुत श्रुत को जानकर भी और अति दीर्घ चारित्र पर्याय को पालकर भी पापी प्रमाद के आधीन बना मूढात्मा भी खो देता है। संयम गुणों की उत्तम सामग्री को और ऐसी ही महाचारित्र रूपी पदवी को प्राप्तकर अथवा मोक्ष मार्ग प्राप्तकर प्रमादी आत्मा सर्वथा हार जाती है। हा! हा! खेद की बात है कि ऐसे प्रमाद को धिक्कार हो! देवता भी जो दीनता धारण करते हैं, पश्चात्ताप और पराधीनता आदि का अनुभव करते हैं, वह जन्मान्तर में प्रमाद करने का फल है। जीव जो अनेक प्रकार की तिर्यंच योनि में, तुच्छ मनुष्य जीवन और नरक में उत्पन्न होता है वह भी निश्चय जन्मान्तर में प्रमाद करने का फल है। यह प्रमाद वस्तुतः जीवों का शत्रु है, तत्त्वतः भयंकर नरक है, यथार्थ व्याधि और वास्तविक दरिद्रता है। इस प्रमाद से तत्त्व का क्षय होता है । यथार्थ दुःखों का समूह है और वास्तविक ऋण है। श्रुत केवली आहारक लब्धि वाले और मोह का उपशम करने वाले भी प्रमाद वश गिरते हैं तो दूसरों की तो बात ही क्या करना ? अल्प अंतर वाली अंगुलियाँ की हथेली में रहे हुए जल समान प्रमाद से पुरुष के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ नष्ट होते हैं। यदि इस जन्म में एक बार भी कोई जीव प्रमाद आधीन हो तो दुःख से पराभव प्राप्त कर वह लाखों-करोड़ों जन्मों तक संसार में भटकता है। इस प्रमाद का निरोध नहीं करने से सकल कल्याण का निरोध होता है और प्रमाद का निरोध करने से समग्र कल्याण का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए हे देवानुप्रिय ! क्षपक मुनि! इस जन्म में पत्नी के निग्रह के समान प्रमाद का निरोध तुझे हितकर होगा । इसलिए तूं उसमें ही प्रयत्न कर। Jain Education International For Personal & Private Use Only 313 www.jainelibrary.org

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