Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 347
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार तुल्य है उन व्रतों में प्रथम व्रत वध त्याग रूप अहिंसा, दूसरा व्रत मृषा विरमण, तीसरा व्रत अस्तेय (अचौर्य), चौथा व्रत मैथुन से निवृत्ति रूप ब्रह्मचर्य पालन और पाँचवाँ व्रत अपरिग्रह है। इसे अनुक्रम से कहते हैं : (2) अहिंसा व्रत :- जीव के भेदों को जानकर जावज्जीव मन. वचन. काया रूप योग से छह काय जीव के वध का सम्यग् रूप से त्याग कर। जीव के भेद इस प्रकार हैं। पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु इन चार के दो-दो भेद हैं, सूक्ष्म और बादर और वनस्पति साधारण तथा प्रत्येक इस तरह दो प्रकार की होती है। उसमें साधारण सूक्ष्म और बादर दो प्रकार से जानना। इस तरह ग्यारह भेद हुए, उसके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से सब मिलकर स्थावर के बाईस भेद होते हैं, दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी दो प्रकार इस तरह कुल पाँच भेद के पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से त्रस जीव दस प्रकार के जानना। इत्यादि भेद वाले सर्व जीव में तत्त्व को जान, सर्वादर से उपयुक्त तूं सदा अपने आत्मा के समान मानकर दया कर। वह इस प्रकार से निश्चय ही सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की इच्छा नहीं करते हैं, इसलिए धीर पुरुष भयंकर हिंसा का हमेशा त्याग करते हैं। भूख प्यास आदि से अति पीड़ित भी तूं स्वप्न में भी कभी भी जीवों का घात करके प्रतिकार मत करना। रति, अरति, हर्ष, भय, उत्सुकता, दीनता आदि से युक्त भी तूं भोग-परिभोग के लिए जीव वध का विस्तार मत करना। तीन जगत की ऋद्धि और प्राण-इन दो में से तूं किसी की एक का वरदान माँग। ऐसा देवता कहे तो अपने प्राणों को छोड़कर तीन जगत की ऋद्धि के वरदान की कौन याचना करे? इस तरह जीव के जीवन की कीमत तीन जगत की ऋद्धि से अधिक है उसकी समानता नहीं हो सकती है इसलिए वह जीवन तीन जगत की प्राप्ति से भी दुर्लभ और सदा सर्व को प्रिय है।।७९०० ।। जैसे मधुमक्खी थोड़ा-थोड़ा संचय कर बहुत मध को एकत्रित करती है, वैसे अल्प-अल्प करते क्रमशः तीन जगत का सारभूत महान् संयम को प्राप्त कर हिंसा रूपी महान घड़ों से अब उसका त्याग नहीं करना। जैसे अणु अथवा परमाणु से कोई छोटा नहीं है और आकाश से कोई बड़ा नहीं है, इस प्रकार जीव रक्षा के समान अन्य कोई श्रेष्ठव्रत नहीं है। तथा जैसे सर्व लोक में और पर्वतों में मेरु गिरि ऊँचा है वैसे सदाचारों में और व्रतों में अहिंसा को अति महान् समझना। जैसे आकाश का आधार लोक है और भूमि का आधार द्वीप-समुद्र है वैसे अहिंसा का आधार तप, दान और शील जानना। क्योंकि जीवलोक में विषय सुख जीव वध के बिना नहीं है इसलिए विषय से विमुख जीव को ही जीवदया महाव्रत होता है। विषय संग के त्यागी प्रासुक आहार-पानी के भोगी, और मन, वचन, काया से गुप्त आत्मा में शुद्ध अहिंसा व्रत होता है। जैसे प्रयत्न करने पर भी मूल के बिना चक्र में आरा स्थिर नहीं रहता है, और आरा बिना जैसे मूल भी अपने कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता, वैसे अहिंसा बिना शेष गुण अपने स्थान का आधार भूत नहीं होता है और उस गुण से रहित अहिंसा भी स्व कार्य की सिद्धि नहीं कर सकती। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्री भोजन का त्याग तथा दीक्षा आदि स्वीकार करना ये सब अहिंसा के रक्षण के लिए हैं। क्योंकि असत्य बोलने आदि से दूसरे को कठोर दुःख होता है इसलिए उन सबका त्याग करना वही अहिंसा गुण के श्रेष्ठ आधार भूत है। हिंसा का व्यसनी राक्षस के समान जीवों को उद्वेग करता है, एवं सगे संबंधी जन भी हिंसक मनुष्य पर विश्वास नहीं करते हैं। हिंसा जीव की और अजीव की दो प्रकार की होती है। उसमें जीव की हिंसा एक सौ आठ प्रकार की है और अजीव की हिंसा ग्यारह प्रकार की है। जीव हिंसा तीन योग से होती है। वह चार कषाय द्वारा, करना, करवाना और अनुमोदन द्वारा तथा संकल्प समारंभ और आरंभ द्वारा परस्पर गुणा करने से ३४४४३४३=१०८ भेद होते हैं। उसमें संकल्प करना उसे संरंभ, परिताप करना उसको 330 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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