Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 420
________________ समाधि लाभ द्वार- फल प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला देव होता है। अप्सराओं वाला कल्पोपपन्न (बारहवें देवलोक वाले) देव जो सुख का अनुभव करता है उससे अनंत गुणा सुख लव सत्तम देवों को होता है। चारित्र, तप, ज्ञान, दर्शन गुण वाला कोई मध्यम आराध वैमानिक इन्द्र और कई सामानिक देवों में उत्पन्न होते हैं । श्रुत भक्ति से युक्त उग्र तप वाले, नियम और योग की सम्यक् शुद्धि वाले, धीर आराधक लोकान्तिक देव होते हैं। आगामी आने वाले जन्म में स्पष्ट रूप में अवश्यमेव मुक्ति पानेवाले होतें हैं, वे आराधक देवों की जितनी ऋद्धियाँ और इन्द्रियजन्य सुख होता है उन सबको प्राप्त करते हैं। और तेजोलेश्या वाला जो जघन्य आराधना करता है वह भी जघन्य से सौधर्म देव की ऋद्धि को तो प्राप्त करता ही है । फिर अनुत्तर भोगों को भोगकर वहाँ से च्यवकर वह उत्तम मनुष्य जीवन को प्राप्तकर अतुल ऋद्धि को छोड़कर श्री जिन कथित धर्म का आचरण करता है। और जाति स्मरण वाला, बुद्धि वाला, श्रद्धा, संवेग और वीर्य उत्साह को प्राप्त कर वह परीषह की सेना को जीतकर और उपसर्ग रूपी शत्रुओं को हराकर शुक्ल ध्यान को प्राप्तकर, शुक्ल ध्यान से संसार का क्षयकर कर्म रूपी आवरण को सर्वथा तोड़कर सर्व दुःखों का नाश कर सिद्धि को प्राप्त करता है। क्योंकि जघन्य से भी आराधना करने वाला जीव सर्व क्लेशों का नाश कर सात-आठ जन्म में तो अवश्य परमपद को प्राप्त करता है। और सर्वज्ञ सर्वदर्शी जन्म जरा आदि दोष रहित निरुपम सुख वाला वह भगवंत सदा वहाँ रहता है। नारक और तिर्यंचों को दुःख, मनुष्यों को किंचित् दुःख, देवों को किंचित् सुख और मोक्ष में एकांत से सुख होता है। सिद्धों के सुख का स्वरूप :- रागादि दोषों के अभाव में और जन्म, जरा, मृत्यु आदि का असंभव होने से, पीड़ा का अभाव होने से सिद्धों को अवश्यमेव शाश्वत सुख ही होता है। क्योंकि राग, द्वेष, मोह एवं दोषों का पक्ष आदि संसार का चिह्न है अथवा अति संक्लेश जीवन संसार का कारण है। इन रागादि से पराभव प्राप्त करने वाला और इससे जन्म, मरणरूपी जल वाले संसार समुद्र में बार- बार भ्रमण करते संसारी आत्मा को किंचित् भी सुख कहाँ से मिल सकता है? रागादि के अभाव में जीव को सुख होता है उसे केवली भगवंत ही जानते हैं। क्योंकि सन्निपात रोग से पीड़ित जीव उनकी निरोगता के सुख को निश्चय से नहीं जान सकता। जैसे बीज जल जाने पर पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है । उसी तरह कर्म बीज रागादि जल जाने के बाद संसार अंकुर जन्म की उत्पत्ति नहीं होती है। जन्म के अभाव में जरा नहीं है, मरण नहीं है, भय नहीं है और संसार में अन्य गति में जाने का भी भय नहीं होता है तो उन सर्व के अभाव में मोक्ष परम सुख कैसे नहीं हो सकता है? सकल इन्द्रियों के विषय सुख भोगने के बाद उत्सुकता की निवृत्ति से अनुभव करते संसार सुखों के समान अव्याबाध से ही मोक्ष सुख की श्रद्धा करनी चाहिए। विशेष में सारे इन्द्रिय जन्य विषय सुख भोगने के बाद में उसकी उत्सुकता की जो निर्वृत्ति होती है उसकी इच्छा पुनः होने से वह केवल अल्प कालिक हैं और सिद्धों को पुनः वह अभिलाषा नहीं होने से वह निर्वृत्ति सर्वकाल की, एकान्तिक और आत्यन्तिकी है इसलिए उनको परम सुख है। इस प्रकार अनुभव से, युक्ति से, हेतु से, तथा श्री जिनेश्वर परमात्मा के आगम से भी सिद्ध सिद्धों का अनंत शाश्वत सुख श्रद्धा करने योग्य है। इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यग् आराधना कर भूतकाल में सर्व क्लेशों का नाश करने वाले अनंत जीव सिद्ध हुए हैं। इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यग् आराधनाकर वर्तमान काल में भी विवक्षित काल में निश्चय संख्याता सिद्ध हो रहे हैं। और इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यग् आराधनाकर भविष्य काल में निश्चय से अनंत जीव सिद्ध होंगे। इस तरह आगम में तीनों काल में इस आराधना विधि की विराधना कर संसार को बढ़ाने वाले भी अनेक जीव हैं। इस प्रकार इस बात को जानकर इस आराधना Jain Education International For Personal & Private Use Only 403 www.jainelibrary.org

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