Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 429
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार तीन काल के सर्व ज्ञेय को जानते हैं वे श्री गौतम स्वामी मुझे और स्थविरों को इस विषय में आज्ञा ही नहीं देते! इसलिए यद्यपि निश्चय यह देव आदि का कोई भी दुष्ट प्रयत्न हो सकता है, फिर भी हे हृदय! प्रस्तुत कार्य में निश्चल हो जा! यदि लोक में निधान आदि की प्राप्ति में विघ्न होते हैं तो लोकोत्तर मोक्ष के साधक अनशन में विघ्न कैसे नहीं आते हैं? इस प्रकार पूर्व कवच द्वार में कथनानुसार धीरता रूप कवच से दृढ़ रक्षण करके अक्षुब्ध मनवाला वह बुद्धिमान महासेन मुनि धर्म ध्यान में स्थिर हुआ। फिर उस मुनि की इस प्रकार स्थिरता देखकर देव ने क्षण में बादल को अदृश्य करके सामने भयंकर दावानल को उत्पन्न किया, उसके बाद दावानल की फैलती तेजस्वी ज्वालाओं के समूह से व्याप्त ऊँचे जाती धुएँ की रेखा से सूर्य की किरण का विस्तार ढक गया, महावायु से उछलते बड़ी-बड़ी ज्वालाओं से ताराओं का समूह जल रहा था। उछलते तड़-तड़ शब्दों से जहाँ अन्य शब्द सुनना बंद हो गया और भयंकर भय से कम्पायमान होती देवी और व्यंतरियाँ वहाँ अतीव कोलाहल कर रही थी। इससे सारा जगत चारों तरफ से जल रहा है, इस तरह देखा। इस प्रकार का भी उस दावानल को देखकर जब महासेन मुनि ध्यान से अल्प भी चलित नहीं हुए तब देव ने विविध साग, भक्ष्य भोजन और अनेक जाति के पेय (पानी) के साथ श्रेष्ठ भोजन को आगे रखकर मधुर वाणी से कहा कि-हे महाभाग श्रमण! निरर्थक भूखे रहकर क्यों दुःखी होते हो? निश्चय नव कोटि परिशुद्ध-सर्वथा निर्दोष इस आहार का भोजन कर। 'निर्दोष आहार लेने वाला साधु को हमेशा उपवास ही होता है।' इस सूत्र को क्या तुम भूल गये हो? कि जिससे शरीर का शोषण करते हो? कहा है कि-चित्त की समाधि करनी चाहिए, मिथ्या कष्टकारी क्रिया करने से क्या लाभ है? क्योंकि तप से सूखे हुए कंडरिक मुनि अधोगति में गया और चित्त के शुद्ध परिणाम वाला उसका बड़ा भाई महात्मा पुंडरिक तप किये बिना भी देवलोक में उत्पन्न हुआ। यदि संयम से थका न हो और उसका पालन करना हो तो हे भद्र! दुराग्रह को छोड़कर अति विशुद्ध इस आहार को ग्रहण करो। इस प्रकार मुनि वेशधारी के शरीर में रहे देव ने अनेक प्रकार से कहने पर भी महासेन मनि जब ध्यान से अल्पमात्र भी चलित नहीं हुए तब पुनः उसके मन को मोहित करने के लिए पवित्र वेशधारी और प्रबल श्रेष्ठ श्रंगार से मनोहर शरीर वाली युवतियों का रूप धारणकर वहाँ आया, फिर विकारपूर्वक नेत्र के कटाक्ष करती, सर्व दिशाओं को दूषित करती सुंदर मुखचंद्र की उज्ज्वल कांति के प्रकाश के प्रवाह से गंगा नदी की भी हंसी करती और हंसीपूर्वक भुजा रूपी लताओं को ऊँची करके बड़े-विशाल स्तनों को प्रकट करती, कोमल झनझन आवाज करती पैर में पहनी हुई पजेब से शोभती, कंदोरे के विविध रंगवाली मणियों की किरणों से सर्व दिशाओं में इन्द्रधनुष्य की रचना करती. कल्पवृक्ष की माला के सगंध से आकर्षित भ्रमर के समहवाली. नाडे के बाँधने के बहाने से क्षण-क्षण पुष्ट नाभि प्रदेश को प्रकट करती, निमित्त बीना ही गात्र भंग बताने से विकार को बतलाती. बहत हावभाव आश्चर्य आदि संदर विविध नखरे करने में कशल और हे नाथ! प्रसन्न हो! हमारा रक्षण करो! आप ही हमारी गति और मति हो। इस प्रकार दो हाथ से अंजलि करके बोलती वे देवांगनाएँ अनुकूल उपसर्ग करने लगी, फिर भी वह महासत्त्वशाली महासेन मुनि ध्यान से चलित नहीं हुए। इस प्रकार अपने प्रतिकूल और अनुकूल तथा महाउपसर्गों को भी निष्फल जानकर निराश होकर वह देव इस प्रकार चिंतन करने लगा कि-धिक्! धिक्! महामहिमा वाले इन्द्र की सत्य बात की अश्रद्धा करके पापी मैंने इस साधु की आशातना की। ऐसे गुण समूह रूपी रत्नों के भंडार मुनि को पीड़ा करने से पाप का जो बंध हुआ, अब मेरा किससे रक्षण होगा? बुद्धि की विपरीतता से यह जीव स्वयं कोई ऐसा कार्य करता है कि जिससे अंदर के शल्य से पीड़ित हो, वैसे वह दुःखपूर्व जीता है। इस प्रकार वह देव चिरकाल दुःखी होते श्रेष्ठ भक्ति से महासेन मुनि की स्तवना कर 412 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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