Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 428
________________ समाधि लाभ द्वार- विजहना नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला जल के समूह वाला समुद्र भी मर्यादा को छोड़ देता है परंतु यह मुनि अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ता । नित्य स्थिर रूप वाली नित्य की वस्तुओं को किसी निमित्त को प्राप्त कर अपनी विशिष्ट अवस्था को छोड़े किंतु यह साधु स्थिरता को नहीं छोड़ता है। जो लीला मात्र में कंकर मानकर सर्व कुल पर्वत को हथेली में उठा सकते हैं, और निमेषमात्र के समय में समुद्र का भी शोषण कर सकते हैं, उस अतुल बल से शोभित देव भी मैं मानता हूँ कि दीर्घकाल में भी इस साधु के निश्चल मन को अल्प भी चलित करने में समर्थ नहीं हो सकता है । । ९९०० ।। यह एक आश्चर्य है कि इस जगत में ऐसा भी कोई महापराक्रम वाला आत्मा जन्म लेता है कि जिसके प्रभाव से तिरस्कृत तीनों लोक असारभूत माने जाते है। इस प्रकार बोलते इन्द्र महाराज के वचन को सत्य नहीं मानते एक मिथ्यात्वी देव रोष पूर्वक विचार करने लगा कि - बच्चे के समान विचार बिना सत्ताधीश भी जैसे तैसे बोलते है, अल्पमात्र भी वस्तु की वास्तविकता का विचार नहीं करते हैं। यदि ऐसा न हो तो महाबल से युक्त देव भी इस मुनि को क्षोभ कराने में समर्थ नहीं है? ऐसा निःशंकता से इन्द्र क्यों बोलता है? अथवा इस विकल्प से क्या प्रयोजन ? स्वयंमेव जाकर मैं उस मुनि को ध्यान से चलित करता हूँ और इन्द्र वचन को मिथ्या करता हूँ। ऐसा सोचकर शीघ्र ही मन और पवन को जीते, इस तरह शीघ्र गति से वह वहाँ से निकलकर और निमेष मात्र महासेन मुनि के पास पहुँचा। फिर प्रलयकाल के समान भयंकर बिजली के समूहवाले, देखते ही दुःख हो और अतसी के पुष्प समान कांतिवाले, काले बादलों के समूह उसने सर्व दिशाओं में प्रकट किये। फिर उसी क्षण में मूसलधारा समान स्थूल और गाढ़ता से अंधकार समान भयंकर धाराओं से चारों तरफ वर्षा को करने लगा, ,फिर समग्र दिशाओं को प्रचंड समूह से भरा हुआ दिखाकर निर्यामक मुनि के शरीर में प्रवेश करके महासेन राजर्षि को वह कहने लगा कि- श्री मुनि! क्या तूं नहीं देखता कि यह चारों ओर फैलते पानी से आकाश के अंतिम भाग तक पहुँचा हुआ शिखर वाले बड़े-बड़े पर्वत भी डूब रहे हैं और जल समूह मूल से उखाड़ते विस्तृत डाली आदि के समूह से पृथ्वी मंडल को भी ढक देते ये वृक्ष के समूह भी नावों के समूह के समान तर रहे हैं, अथवा क्या तूं सम्यग् देखता नहीं है कि आकाश में फैलते जल के समूह से ढके हुए तारा मंडल भी स्पष्ट दिखते नहीं हैं? इस प्रकार इस जल के महा प्रवाह के वेग से खिंच जाते तेरा और मेरा भी जब तक यहाँ मरण न हो, वहाँ तक यहाँ से चला जाना योग्य है। हे मुनि वृषभ ! मरने की इच्छा छोड़कर प्रयत्नपूर्वक निश्चल आत्मा का रक्षण करना चाहिए, क्योंकि ओघ निर्युक्ति सूत्र गाथा ३७वीं में कहा है कि सव्वत्थ संजमं संज- माउ अप्पाणमेव रक्खंतो। मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न याऽविरई । । ९९१५ ।। मुनि सर्वत्र संयम की रक्षा करे, संयम से भी आत्मा की रक्षा करते मृत्यु से बचे, पुनः प्रायश्चित्त करे, परंतु मरकर अविरति न बनें। इस तरह यहाँ रहे तेरे मेरे जैसे मुनियों का विनाश होने के महान् पाप के कारण निश्चय थोड़े समय में भी मोक्ष नहीं होगा, क्योंकि हे भद्र! हम तेरे लिए यहाँ आकर रहे हैं, अन्यथा जीवन की इच्छा वाले कोई भी क्या इस पानी में रहे? इस प्रकार देव से अधिष्ठित उस साधु के वचन सुनकर अल्प भी चलित नहीं हुए और स्थिर चित्त वाले महासेन राजर्षि निपुण बुद्धि से विचार करने लगे कि क्या यह वर्षा का समय है? अथवा यह साधु महासात्त्विक होने पर भी दीन मन से ऐसा अत्यंत अनुचित कैसे बोले ? मैं मानता हूँ कि कोई असुरादि मेरे भाव की परीक्षार्थ मुझे उपसर्ग करने के लिए ऐसा अत्यंत अयोग्य कार्य किया है। और यदि यह स्वाभाविक सत्य ही होता तो जिसे Jain Education International For Personal & Private Use Only 411 www.jainelibrary.org

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