________________
श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-फल प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार में प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इस संसार समुद्र में जीव को निश्चय रूप से दूसरा कोई दुःख का प्रतिकार करने वाला नहीं है।
भव्यात्माओं को 'एकांत श्रद्धा' आदि भावों से महान् आगम परतंत्रता को ही निश्चय इस आराधना का मूल भी जानना। क्योंकि छद्मस्थों को मोक्ष मार्ग में आगम को छोड़कर दूसरा कोई भी प्रमाण नहीं है। अतः उसमें ही प्रयत्न करना चाहिए। इस कारण से सुख की अभिलाषा वाले को निश्चय सर्व अनुष्ठान को नित्यमेव अप्रमत्त रूप में आगम के अनुसार ही करना चाहिए। पूर्व में इस ग्रंथ में मरण विभक्ति द्वार में जो सूचन किया है कि- आराधना फल नामक द्वार में मरण के फल को स्पष्ट कहेंगे, इसलिए अब वह अधिगत द्वार प्राप्त होने से यहाँ पर मैं अनुक्रम से मरण के फल को भी अल्प मात्र कहता हूँ । उसमें वेहाणस और गृद्ध पृष्ठ मरण सहित दस प्रकार के मरण सामान्य और दुर्गतिदायक कहे हैं। एवं पूर्व में कहे विधानानुसार क्रम वाले शेष पंडित, मिश्र, छद्मस्थ, केवली, भक्त परिज्ञा, इंगित और पादपोपगमन ये सात मरण सामान्य से तो सद्गतिदायक हैं। केवल अंतिम तीन का सविशेष फल कहा है। और शेष चार का फल तो उसके प्रवेश के समान ही जानना अथवा उसउस संथारे के अनुसार जानना । उसमें भी भक्त परिज्ञा का फल तो उसमें वर्णन के समय कहा है इसलिए इंगिनी मरण का फल कहता हूँ ।
पूर्व के कथनानुसार विधि से इंगिनी अनशन से सम्यग् आराधनाकर सर्व क्लेशों का नाश करने वाले कई आत्मा सिद्ध हुए हैं और कई वैमानिक में देव हुए हैं। इस इंगिनी मरण का फल भी आगम कथित विधान अनुसार कहा है । अब पादपोपगमन नामक मरण का फल कहते हैं। सम्यक् त या पादपोपगमन में स्थिर रहा सम्यग् धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान का ध्यान करते कोई आत्मा शरीर छोड़कर वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है और कोई क्रमशः कर्म का क्षय करते सिद्ध गति का सुख भी प्राप्त करता है। उस सिद्धि की प्राप्ति का क्रम और उसका स्वरूप सामान्य से कहता हूँ ।
युद्ध में अग्रेसर रहे सुभट स्वराज्य को प्राप्त करते हैं वैसे धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान, का ध्यान करते, शुभ लेश्या वाले अपूर्व करणादि के क्रम से यथोत्तर चारित्र शुद्धि से क्षपक श्रेणि में चढ़ते आराधक ज्ञानावरणीय आदि सहित मोह सुभट को खत्म कर केवल ज्ञान रूपी राज्य को प्राप्त करते हैं फिर वहाँ कुछ कम पूर्व करोड़ वर्ष तक अथवा अंतर्मुहूर्त्त उस तरह रहते हैं उसमें यदि वेदनीय कर्म बहुत और आयुष्य कर्म कम हो तो उस महात्मा की आयुष्य अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाय तब शेष कर्मों की स्थिति को आयुष्य के समान करने के लिए समुद्घात को करते हैं। जैसे गीले वस्त्र को चौड़ा करने से क्षण में सूख जाता है । उसी तरह शीघ्र नहीं सूखने से वेदनीय आदि कर्म अनुक्रम से बहुत काल में खत्म होते हैं, परंतु वह समुद्घात करने वाले को अवश्यमेव क्षण में भी क्षीण होते हैं। अतः समस्त घाती कर्म के आवरण को क्षण से बढ़ते वीर्योल्लास वाले उन कर्मों को शीघ्र खत्म करने के लिए उस समय समुद्घात का आरंभ करते हैं, उसमें चार समय में क्रमशः दण्ड (आकार), कपाट, मंथन और सर्व चौदह राजलोक में व्याप्त - पूरण करते हैं। फिर क्रमशः उसी तरह चार समय में वापिस सिकोड़ते हैं। इस तरह वेदनीय, नाम और गौत्र कर्म को आयुष्य कर्म के समान स्थिति वाले करके फिर शैलेशी करने के लिए योग निरोध करते हैं। उसमें प्रथम बादर काय योग से बादर मनोयोग का और बादर वचन योग का निरोध करते हैं फिर काय योग को सूक्ष्म काय योग से स्थिर करते हैं, फिर सूक्ष्म काय योग से सूक्ष्म मन और वचन योग को रोककर केवल सूक्ष्म काय योग में केवली सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति नामक तीसरा शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं उसके बाद यह तीसरी सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति ध्यान द्वारा सूक्ष्म काय योग को भी रोकते हैं, तब सर्व योगों का
404
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org