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समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण द्वार-पुत्रवधुओं की कथा
श्री संवेगरंगशाला उठाने में समर्थ बनती हैं। जैसे सर्व अंगों से समर्थ बैल भार को उठाने के लिए समर्थ होता है वैसे व्रतों में अतिदृढ़ आत्मा उत्तम धर्मधुरा को उठाने में समर्थ बनती है। जैसे अत्यंत मजबूत अंगवाली छिद्र रहित नाव वस्तुओं को उठाने में समर्थ होती है वैसे ही व्रतों में भी सुदृढ़ और अतिचार रहित आत्मा धर्मगुण को उठा सकती है। जैसे पका हुआ और छिद्र बिना का अखंड घड़ा पानी को धारण करने में अथवा रक्षण करने में समर्थ होता है वैसे ही व्रतों में सुदृढ़ और अतिचार रहित आत्मा धर्म गुणों को धारण करने में और रक्षण करने में समर्थ बन सकती है। इन व्रतों के सद्भाव से, पालन करने से, अति दृढ़ता से और अतिचार रहित से जीव इस अपार संसार समुद्र को तरे हैं, तर रहे हैं और तरेंगे। धन्यात्माओं को यह व्रत प्राप्त होता है, धन्य जीवों को ही इसमें अतिदृढ़ता आती है और धन्य पुरुषों को ही इसमें परम निरतिचार युक्त शुद्धि होती है। इसलिए अति दुर्लभ पाँच महाव्रत रूपी रत्नों को प्राप्त कर तूं फेंक मत देना और इनको आजीविका का आधार भी मत बनाना अन्यथा उज्जिका और भोगवती के समान तूं भी इस संसार में कनिष्ठ स्थान को प्राप्त कर अपयश और दुःख को प्राप्त करेगा। इसलिए दृढ़ चित्तवाले तूं पंच महाव्रतों की धूरा को धारण करने में समर्थ बैल बनना। स्वयं इन व्रतों का पालन करना और दूसरों को भी उपदेश देना।
इससे धन नाम के सेठ की पुत्रवधू रक्षिका और रोहिणी के समान उत्तम स्थान तथा कीर्ति को प्राप्त कर तूं हमेशा सुखी होगा ।।८२२२।। वह कथा इस प्रकार :
धन सेठ की पुत्रवधुओं की कथा राजगृह नगर में धन नाम का सेठ था, उसके धनपाल आदि चार पुत्र और उज्जिका, भोगवती, रक्षिका तथा रोहिणी नाम की चार पुत्रवधू थीं। सेठजी की उम्र परिपक्व होने से चिंता हुई कि अब किस पुत्रवधू को घर का कार्यभार सौंपू? फिर परीक्षा के लिए भोजन मंडप तैयार करवाया और सभी को निमंत्रण किया, भोजन करवाने के बाद उनको स्वजनों के समक्ष 'इसे संभालकर रखना और जब मांगू तब देना' ऐसा कहकर आदरपूर्वक प्रत्येक को पाँच-पाँच धान के दाने दिये। पहली बहू ने उसे फेंक दिया। दूसरी ने छिलका निकाल कर भक्षण किया, तीसरी ने बाँधकर आभूषण समान रक्षण कर रखा और चौथी ने विधिपूर्वक पीहर बोने के लिए भेजा। बहुत समय जाने के बाद पूर्व के समान भोजन करवाकर सगे संबंधियों के समक्ष उन दानों को मांगा। प्रथम और दूसरी उसका स्मरण होते ही उदास बन गयी। तीसरी ने वही दाने लाकर दिये और चौथी ने चाभी दी और कहा कि गाड़ी भेजकर मँगा लो क्योंकि आपके उस वचन का पालन इस तरह वृद्धि करने से होता है अन्यथा शक्ति होने पर विनाश होने से सम्यक् पालन नहीं माना जाता है। फिर धन सेठ ने स्वजनों से कहा कि-आप मेरे कल्याण साधक हितस्वी हो, तो इस विषय में मुझे क्या करना योग्य है उसे आप कहो? उन्होंने कहा कि-आप अनुभवी हो आपको जो योग्य लगे उसे करो। इससे उन्होंने अनुक्रम से घर की सफाई का कार्य, घर के कोठार, भंडार और घर संभाल कार्य सौंप दिया और इससे सेठजी की प्रशंसा हुई।
इस दृष्टांत का उपनय इस प्रकार जानना। सेठ के समान संयम जीवन में गुरु महाराज हैं, स्वजन समान श्रमण संघ है, पुत्रवधुओं के समान भव्य जीव और धान के दाने के समान महाव्रत हैं। जैसे वह धान के दाने फेंक देने वाली यथार्थ नाम वाली उज्जिता दासीत्व प्राप्त करने से बहुत दुःखों की खान बनी। वैसे ही जो कोई भव्यात्मा गुरु ने श्रीसंघ समक्ष दिये हुए महाव्रत को स्वीकार करके महामोह से त्याग कर देता है, वह इस संसार में ही मनुष्यों के द्वारा धिक्कार पात्र बनता है और परलोक में दुःखों से पीड़ित विविध हल्की योनियों में भ्रमण करता है। और जैसे वह धान के खाने वाली यथार्थ नाम वाली भोगवती ने पीसना आदि घर के कार्य विशेष करने
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