Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

Previous | Next

Page 417
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-ध्यान नामक छट्टा द्वार क्षपक चारों प्रकार के श्रेष्ठ धर्म ध्यान का चिंतन करे, प्रथम आज्ञा विचय, दूसरा अपाय विचय, तीसरा विपाक और चौथा संस्थान विचय, इस प्रकार क्षपक मुनि चार प्रकार के धर्म ध्यान का चिंतन करे। उसमें-१. आज्ञा विचय - सूक्ष्म बुद्धि से श्री जिनेश्वर की आज्ञा को निर्दोष, निष्पाप, अनुपमेय, अनादि अनंत, महा अर्थवाली, चिरस्थायी, शाश्वत, हितकर, अजेय, सत्य, विरोध रहित, सफलतापूर्वक मोह को हरने वाली, गंभीर युक्तियों से महान्, कान को प्रिय, अबाधित, महा विषय वाली और अचिंत्य महिमा वाली है, ऐसा चिंतन करें। २. अपाय विचय - इन्द्रिय, विषय, कषाय और आश्रवादि पच्चीस क्रियाओं में, पाँच अव्रत आदि में वर्तन, मोहमूढ़ जीव के भावि नरकादि जन्मों में विविध अपाय का चिंतन करें। ३. विपाक विचय में - वह क्षपक मुनि मिथ्यात्वादि बंध हेतु वाली कर्मों की शुभाशुभ प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और उसके तीव्र, मंद, अनुभव-रस, इस प्रकार कर्म के चारों विपाकों का चिंतन करें। ४. संस्थान विचय में – श्री जिनेश्वर कथित पंच अस्तिकाय स्वरूप अनादि अनंत लोक में अधोलोक आदि तीन भेद को तथा तिर्छलोक में असंख्य द्वीप समद्र आदि का विचार करें। और ध्यान पूर्ण होते नित्य अनित्यादि भावना से चिंतन वाला बनें, वह भावना सुविहित मुनियों को आगम के कथन से प्रसिद्ध है। वह इस ग्रंथ में चौथे द्वार के अनुशास्ति द्वार में कही है। क्षपक जब इस धर्म ध्यान को पूर्ण करे तब शुद्ध लेश्या वाला चार प्रकार के शुक्ल ध्यान का ध्यान करें। श्री जिनेश्वर प्रथम शुक्ल ध्यान 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' कहते हैं, दूसरे शुक्ल ध्यान को 'एकत्व वितर्क अविचार' कहते हैं, तीसरे शुक्ल ध्यान को 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति' कहते हैं और चौथे शुक्ल ध्यान को 'व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति' कहते हैं। उसमें पृथक् अर्थात् विस्तार ऐसा अर्थ होता है इसलिए पृथक्त्व अर्थात् विस्तारपूर्वक ऐसा अर्थ होगा। वह विस्तारपूर्वक तर्क करे उसे वि+तर्क-वितर्क कहते हैं। यहाँ प्रश्न करते हैं कि विस्तारपूर्वक इसका क्या मतलब? उत्तर देते हैं कि-परमाणु जीव (जीव-जड़) आदि किसी एक द्रव्य में, उत्पत्ति, स्थिति और विनाश अथवा रूपी, अरूपी आदि उसके विविध पर्यायों का विस्तारपूर्वक उसे जो अनेक प्रकार के नय भेद द्वारा विचार करना वह पृथक्कत्व है. वितर्क अर्थात श्रत के लिए पूर्वगत श्रत के अनसार चिंतन करना अर्थात अन्योन्य पर्यायों में चिंतन करना यानि अर्थ में से व्यंजन में और व्यंजन में से अर्थ में संक्रमण करना वही चिंतन कहलाता है। प्रश्न करते हैं कि अर्थ और व्यंजन का क्या भावार्थ है? उत्तर देते हैं कि-द्रव्य (वाच्य पदार्थ) उस अर्थ और अक्षरों का नाम वाचक, वह व्यंजन तथा मन, वचन आदि योग जानना, उसे योगों द्वारा अन्यान्य अवान्तर भेदपर्यायों में जो प्रवेश करना उसे निश्चय से विचार कहा है, उस विचार से सहित को सविचार कहा है अर्थात् पदार्थ और उसके विविध पर्याय में, शब्द में अथवा अर्थ में मन आदि विविध योगों के द्वारा पूर्वगत श्रुत के अनुसार जो चिंतन किया जाय वह विचार 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' नामक प्रथम शुक्ल ध्यान जानना। एकत्व-वितर्क में एक ही पर्याय में अर्थात् उत्पाद, स्थिति, नाश आदि में किसी भी एक ही पर्याय में ध्यान होता है, अतः एकत्व और पूर्वगत श्रुत, उसके आधार पर जो ध्यान हो वह वितर्क युक्त है और अन्यान्य व्यंजन, अर्थ अथवा योग को धारण संक्रमण विचरण गमन नहीं करने के लिए अविचार कहा है। इस तरह पवन रहित दीपक के समान स्थिर दूसरे शुक्ल ध्यान को 'एकत्व वितर्क अविचार' कहा है। केवली को सूक्ष्म काययोग में योग निरोध करते समय तीसरा 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति' ध्यान होता है और अक्रिया (व्युच्छिन्न क्रिया) अप्रतिपाती यह चौथा ध्यान है, उसे योग निरोध के बाद शैलेशी में होता है। क्षपक को कषाय के साथ युद्ध में यह ध्यान आयुद्ध रूप है। शस्त्र रहित सभट के समान ध्यान रहित क्षपक यद्ध में कर्मों को नहीं जीत सकता है। इस प्रकार ध्यान करते क्षपक जब बोलने में अशक्य बनता है तब निर्यामकों को अपना अभिप्राय बताने के लिये हुँकार, अंजलि, भृकुटी अथवा अंगुलि 400 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436