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श्री संवेगरंगशाला
अज्ञान रूप अंधकार के समूह को नाश करते वे सर्वत्र विचरते थें।
गाँव, नगर, पुर, आकर, कर्बट, मण्डब, आश्रम और शून्य घरों में विहार करते पुंडरिकीणी नगरी में पधारें वहाँ देवों ने आश्चर्यकारक श्रेष्ठ समवसरण की रचना की। उसमें वज्रसेन तीर्थनाथ बिराजमान हुए और उसी समय अपने भाईयों के साथ आकर वज्रनाभ चक्री भक्तिपूर्वक प्रभु को वंदन स्तुति कर पृथ्वी के ऊपर बैठे। श्री जिनेश्वर भगवान ने संसार के महाभय को नाश करने में समर्थ धर्म उपदेश दिया, उसे सुनकर चारों भाइयों के साथ श्री वज्रनाभ चक्रवर्ती ने दीक्षा ली। उसमें समस्त सूत्र, अर्थ के समूह के ज्ञाता भव्य को मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले, स्वाध्याय और ध्यान में एकाग्र चित्तवाले, शत्रु, मित्र के प्रति समदृष्टि वाले वज्रनाभ आराधना में दिन व्यतीत कर रहे थे। वे बाहु और सुबाहु भी तपस्वी और ग्यारह अंगों को सम्यक् प्रकार से अभ्यास कर शुभ मन से बाहु मुनि तपस्वी साधुओं की आहार आदि से भक्ति और सुबाहु मुनि साधुओं की शरीर सेवा करते थें। तथा दूसरे पीठ और महापीठ दोनों उत्कटुक आदि आसन करते स्वाध्याय ध्यान में प्रवृत्त रहते थें। बड़े भाई वज्रनाभ मुनि श्री जिन पद को प्राप्त करानेवाला वीस स्थानक तप की आराधना करते थें और बाहु मुनि की विनय वृत्ति तथा सुबाहु की भक्ति की हमेशा प्रशंसा करते थें। क्योंकि श्री जिन मत में निश्चय गुणवान के गुणों की प्रशंसा करने को कहा है। उसे सुनकर कुछ मान पूर्वक पीठ और महापीठ ने चिंतन किया कि 'जो विनय वाला है उसकी प्रशंसा होती है, नित्य स्वाध्याय करने वाले हमारी प्रशंसा नहीं होती है।' फिर आलोचना करते समय उन्होंने इस प्रकार के कुविकल्प को गुरु के पास सम्यग् रूप से नहीं कहा। इससे चिरकाल जैन धर्म की आराधना करके भी स्त्रीत्व को प्राप्त करने वाला कर्म बंध किया। फिर आयुष्य पूर्ण होते उन पाँचों ने सर्वार्थ सिद्ध में देवत्व की ऋद्धि प्राप्त की, उसके बाद वज्रनाभ इस भरत में नाभि के पुत्र श्री ऋषभदेव भगवान हुए, बाहु भी च्यवकर रूप आदि से युक्त ऋषभदेव का प्रथम पुत्र भरत नाम से चक्री हुआ और सुबाहु बाहुबली नामक अति बलिष्ठ दूसरा पुत्र हुआ। पीठ और महापीठ दोनों ऋषभदेव की ब्राह्मी और सुंदरी नाम से पुत्री हुईं।
इस प्रकार पूर्व में कर्म बंध करने से और आलोचना नहीं करने से माया शल्य का दोष अशुभकारी होता है। इस प्रकार हे क्षपक मुनि! माया शल्य को छोड़कर उद्यमी तूं दुर्गति में जाने का कारणभूत मिथ्यात्व ल्या भी त्याग कर ।
समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार-नंद मणियार की कथा
(३) मिथ्यात्व शल्य :- यहाँ मिथ्यात्व को ही मिथ्या दर्शन शल्य कहा है, और वह निष्पुण्यक जीवों को मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय करवाता है, (१) बुद्धि के भेद से, (२) कुतीर्थियों के परिचय से अथवा उनकी प्रशंसा से और (३) अभिनिवेश अर्थात् मिथ्या आग्रह से इस प्रकार तीन प्रकार से प्रकट होता है। इस शल्य को नहीं छोड़नेवाला, दानादि धर्मों में रक्त होने पर भी मलिन बुद्धि से सम्यक्त्व का नाश करके नंद मणियार नामक सेठ के समान दुर्गति में जाता है । । ९२४९ ।। उसकी कथा इस प्रकार :
नंद मणियार की कथा
इसी जम्बू द्वीप के अंदर भरतक्षेत्र में राजगृह नगर में अतुल बलवान श्री श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था। उसकी भुजा रूपी परीघ से रक्षित कुबेर समान धनवान लोगों को आनंद देनेवाला, राजा को भी माननीय और मणियारा के व्यापारियों में मुख्य नंद नामक सेठ रहता था । सुरासुर से स्तुति होते जगद् बंधु श्री वीर परमात्मा एक समय नगर के बाहर उद्यान में पधारें। उसे सुनकर वह नंद मणियार भक्ति समूह वाला अनेक पुरुषों के परिवार से युक्त पैरों से चलकर शीघ्र वंदन के लिए आया। फिर बड़े गौरव के साथ तीन प्रदक्षिणा देकर श्री वीर परमात्मा को वंदनकर धर्म श्रवण के लिए पृथ्वी पर बैठा । तब तीन भुवन के एक तिलक और धर्म के
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