Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 407
________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार- प्रतिपत्ति नामक दूसरा द्वार देनेवाले कुशास्त्रों की रचना की अथवा मैंने उसका अभ्यास किया हो, उसकी भी मैं निंदा करता हूँ। जन्म के समय ग्रहण करते और मरते समय छोड़ते पाप की आसक्ति में तत्पर जो जन्म जन्मान्तर के शरीर धारण किये, उन सबका भी आज मैं त्याग करता हूँ। जो जीव हिंसा कारक जाल, शस्त्र, हल, मूसल, उखल, चक्की, मशीन आदि जो सर्व प्रकार के अधिकरणों को इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में किया, करवाया या अनुमोदन किया हो उन सब पर की मेरी ममता का त्रिविध - त्रिविध मैं त्याग करता हूँ। और मूढात्मा मैंने लोभवश कष्ट से धन को प्राप्त कर और मोह से रखकर यदि पाप स्थानों में उपयोग किया हो उसे निश्चय अनर्थभूत समस्त धन की आज मैं भावपूर्वक अपनी ममता का त्रिविध-त्रिविध त्याग करता हूँ। और किसी के भी साथ में मुझे यदि कुछ भी वैर की परंपरा थी और है उसे भी प्रशम भाव में रहकर मैं आज संपूर्ण रूप में खमाता हूँ। सुंदर घर कुटुंब आदि में मेरा यदि राग था अथवा और आज भी है उसे भी मैं छोड़ता हूँ ।। ९३९१।। अधिक क्या कहूँ? इस जन्म में अथवा जन्मान्तर में स्त्री, पुरुष या नपुंसक जीवन में रहा हुआ और विषयाभिलाष के वश होकर मैंने गर्भ को गिराया हो, तथा परदारा सेवन आदि जो अनार्य भयंकर पाप किये हो, तथा क्रोध से अपना घात या पर का घात आदि किया हो, मान से यदि पर का खंडन - अपमानादि किया हो, माया से परवंचनादि रूप भी जो किया हो, और लोभ की आसक्ति से महा आरंभ - परिग्रह आदि किया हो, तथा आहट्ट, दोहट्ट वश पीड़ा से जो विविध अनुचित्त वर्तन किया । और रागपूर्वक मांस भक्षण आदि अभक्ष्य भक्ष्य खाया हो, मद्य, शराब अथवा लावक नामक पक्षी का रस आदि जो कुछ अपेय का पान किया हो, द्वेष से जो कुछ परगुण को सहन नहीं किया, निंदा, अवर्णवाद आदि किया, और मोह महाग्रह से ग्रसित हुआ, और इससे हेय, उपादेय के विवेक से शून्य चित्तवाले मैंने प्रमाद से अनेक प्रकार के अनेक भेद से जो कुछ भी पापानुबंधी पाप को किया और अमुक-अमुक इस पाप को किया और अमुक इन पाप को अब करूँगा । ऐसे विकल्पों से जो किया, उसे भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों काल संबंधी सर्व पापों की त्रिविध-त्रिविध गर्हा द्वारा विशुद्ध बना संविज्ञ मन वाला मैं आलोचना, निंदा और गर्हा से विशुद्धि को प्राप्त करता हूँ ।। ९४०० ।। इस प्रकार गुणों की खान क्षपक श्रावक यथा स्मरण दुराचरणों के समूह की गर्हा करके उसके राग को तोड़ने के लिए आत्मा को समझावे जैसे कि - देवलोक में इस मनुष्य जन्म की अपेक्षा अत्यंत श्रेष्ठ रमणीयता से अनंततम गुणा अधिक रति प्रकट कराने वाला श्रृंगारिक शब्दादि विषयों को भोगकर पुनः तुच्छ, गंदा और उससे अनंत गुण हल्के इस जन्म के इन विषयों को, हे जीव ! तुझे इच्छनीय नहीं है। तथा नरक में यहाँ की अपेक्षा से स्वभाव से ही असंख्य गुण कठोर अनंततम गुण केवल दुःखों को ही दीर्घकाल तक निरंतर सहन करके वर्तमान में, आराधना में लीन मन वाले हे जीव! तूं यहाँ विविध प्रकार की शारीरिक पीड़ा हो तो फिर भी अल्प भी क्रोध मत करना । तूं निर्मल बुद्धि से विचारकर दुःखों को समता से सहन कर, स्वजनों से तुझे थोड़ा भी आधार नहीं है, स्वजन सदा तुझे छोड़कर गये है; क्योंकि—हे भद्र! तूं सदा अकेला ही है, तीन जगत में भी दूसरा कोई तेरा नहीं है, तूं भी इस जगत में अन्य किसी का भी सहायक नहीं है, अखंड ज्ञान - दर्शन - चारित्र के परिणाम से युक्त और धर्म का सम्यग् अनुकरण करता एक प्रशस्त आत्मा ही अवश्य तेरा सहायक है। और जीवों को यह सारे दुःखों का समुदाय निश्चय संयोग के कारण हैं। इसलिए जावज्जीव सर्व संयोगों का त्याग कर, तूं सर्व प्रकार के आहार का तथा उस प्रकार की समस्त उपधि समूह का, और क्षेत्र संबंधी भी सर्व क्षेत्र के राग का शीघ्र त्याग कर। और जीव का इष्ट, कान्त, प्रिय, मनपसंद, मुश्किल से त्याग हो, ऐसा जो यह पापी शरीर है उसे भी तूं तृण समान मान। 390 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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