Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 414
________________ समाधि लाभ द्वार-कवच नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला अव्यवस्थित लकड़ी के समूह ऊपर पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर रहे, उस समय बिना मौसम वर्षा से नदी की बाढ़ में बहते उस काष्ठ के साथ समुद्र में पहुँचे वहाँ उनको जलचर जीवों से भक्षण तथा जल की लहर से उछलने आदि दुःख सहन करते अखंड अनशन का पालनकर स्थिर सत्त्ववाले सम्यक् समाधि प्राप्त कर वे स्वर्ग में गये। इसलिए यदि इस प्रकार असहायक और तीव्र वेदना वाले भी सर्वथा शरीर की रक्षा नहीं कर उन सर्व ने समाधि मरण प्राप्त किया है। तो सहायक साधुओं द्वारा सार संभाल लेते और संघ तेरे समीप में है फिर भी तूं आराधना क्यों नहीं कर सकता? अर्थात् अमृत तुल्य मधुर कान को सुखकारक श्री जिन वचन को सुनानेवाला तुझे संघ बीच में रहकर समाधि मरण की साधना निश्चय ही शक्य है। तथा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवलोक में रहकर तूंने जो सुख दुःख को प्राप्त किया है उसमें चित्त लगाकर इस तरह विचार कर।।९५७१।। नरक में काया के कारण से तूं ने शीत, उष्ण आदि अनेक प्रकार की अति कठोर वेदनाएँ अनेक बार प्राप्त की हैं। यदि पानी के लोट समान लोहे के गोले को कोई उष्ण स्पर्श वाली नरक में फैंके तो निमेष मात्र में उस नरक की जमीन पर पहुँचने के पहले बीच में गल जाता है ऐसी तेज गरमी नरक में होती है। और उसी तरह उतना ही प्रमाण वाला जलते लोहे के गोले को यदि कोई शीत स्पर्श वाली नरक में फेंके तो वह भी वहाँ नरक भूमि के स्पर्श बिना बीच में ही निमेष मात्र में सड़कर बिखर जाता है ऐसी अतीव ठण्डी में तूं दुःखी हुआ और नरक में परमाधामी देव ने तुझे शूली, कूट शाल्मली वृक्ष, वैतरणी नदी, उष्ण रेती और असि वन में दुःखी किया तथा लोहे के जलते अंगारे खिलाते तूंने जो दुःखों को भोगा, सब्जियों के समान पकाया, पारा के समान गलाया, मांस के टुकड़े के समान टुकड़े-टुकड़े काटा, अथवा चूर्ण के समान चूर्ण किया. तथा गरमागरम तेल की कढाई में तला, कुंभी में पकाया, भाले से भेदन किया, करवत से चीरा, उसका विचार कर। तिर्यंच जन्म में :- भूख, प्यास, ताप, ठण्डी सहन की, शूली में चढ़ाया गया, अंकूश में रहा, नपुंसक बनाया गया, दमन करना इत्यादि तथा मार बंधन और मरण से उत्पन्न हुए वे कठोर दुःखों का तूं विचार कर। मनुष्य जन्म में :- प्रियजनों का विरह, अप्रिय का संगम, धन का नाश, स्त्री से पराभव, तथा दरिद्रता का उपद्रव इत्यादि होने से जो दुःख भोगा, और छेदन, मुण्डन, ताड़न, बुखार, रोग, वियोग, शोक, संताप आदि शारीरिक, मानसिक और एक साथ वे दोनों प्रकार के दुःखों को भोगा उसका विचार कर। देव जन्म में :- च्यवन की चिंता और वियोग से पीड़ित, देवों के भवों में भी इन्द्रादि की आज्ञा का बलात्कार, पराभव, ईर्ष्या, द्वेष आदि मानसिक दुःखों का विचार कर। और सहसा च्यवन के चिन्हों को जानकर दुःखी होते, विरह की पीड़ा से चपल नेत्र वाला देव भी देव की संपत्ति को देखते चिंता करता है कि-सुगंधी चंदनादि से व्याप्त, नित्य प्रकाश वाले देवलोक में रहकर अब मैं दुर्गंधमय तथा महा अंधकार भरे गर्भाशय में किस तरह रहूँगा? और दुर्गंधी मल, रुधिर, रस-धातु आदि अशुचिमय गर्भ में रहकर संकोचमय प्रत्येक अंग वाला मैं कटिभाग के सांकड़ी योनि में से किस तरह निकलूँगा? तथा नेत्रों के अमृत की वृष्टि तुल्य अप्सराओं के मुख चंद्र को देखकर हा! शीघ्र माया से गर्जना करती मनुष्य स्त्री के मुख को किस तरह देखूगा? एवं सुकुमार और सुगंधी मनोहर देहवाली देवियों को भोगकर अब अशुचिमय घड़ी समान स्त्री को किस तरह भोगूंगा? पूर्व में दुर्गंधी मनुष्य शरीर की गंध से दूर भागता था। अब उस अपवित्र मनुष्य के शरीर में जन्म लेकर कैसे रहुँ? हा! दीनों का उद्धार नहीं किया, धर्मिजनों का वात्सल्य नहीं किया, और हृदय में श्री वीतराग देव को धारण नहीं किया, मैंने जन्म को गंवा दिया, मैंने मेरु पर्वत, नंदीश्वर आदि में शाश्वत चैत्यों में श्री जिन कल्याणक के समय 397 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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