Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

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Page 408
________________ समाधि लाभ द्वार-प्रतिपति नामक दूसरा द्वार श्री संवेगरंगशाला इस प्रकार परिणाम को शुद्ध करते सम्यग् बढ़ते विशेष संवेग वाला शल्यों का सम्यक् त्यागी सम्यग् आराधना की इच्छावाला और सम्यक् स्थिर मनवाला सुभट जैसे युद्ध की इच्छा करें, वैसे क्षपक श्रमण एवं श्रावक मनोरथ से अति दुर्लभ पंडित मरण को मन में चाहता है और पद्मासन बनाकर अथवा जैसे समाधि रहे, वैसे शरीर से आसन लगाकर, संथारे में बैठकर, डांस, मच्छर आदि को भी नहीं गिनते। धीर बनकर अपने मस्तक पर हस्त कमल को जोड़कर भक्ति के समूह से संपूर्ण मन वाला बार-बार इस प्रकार बोले : यह 'मैं' तीन जगत से पूजनीय, परमार्थ से बंधु वर्ग और देवाधिदेव श्री अरिहंतों को सम्यग् नमस्कार करता हूँ। तथा यह 'मैं' परम उत्कृष्ट सुख से समृद्ध अगम्य वचनातीत रूप के धारक और शिव पदरूपी सरोवर में राजहंस समान सिद्धों को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' प्रशम रस के भंडार, परम तत्त्व-मोक्ष के जानकार और स्व सिद्धांत-पर सिद्धांत में कुशल आचार्यों को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' शुभध्यान के ध्याता भव्यजन वत्सल और श्रुतदान में सदा तत्पर श्री उपाध्यायों को नमस्कार करता हूँ। और यह 'मैं' मोक्ष मार्ग में सहायक, संयम रूपी लक्ष्मी के आधार रूप और मोक्ष में एक बद्ध लक्ष्य वाले साधुओं को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' संसार में परिभ्रमण करने से थके हुए प्राणी वर्ग का विश्राम का स्थान सर्वज्ञ प्रणीत प्रवचन को भी नमस्कार करता हूँ। तथा यह 'मैं' सर्व तीर्थंकरों ने भी जिसको नमस्कार किया है, उस शुभ कर्म के उदय से स्व-पर विघ्न के समूह को चूर्ण करने वाले श्री संघ को नमस्कार करता हूँ। उस भूमि प्रदेशों को मैं वंदन करता हूँ, जहाँ कल्याण के निधानभूत श्री जिनेश्वरों ने जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाणपद प्राप्त किया है। शीलरूप सुगंध के अतिशय से श्रेष्ठ, कुगुरु को जीतने वाले, उत्तम कल्याण के कुल भवन समान और संसार से भयभीत प्राणियों के शरणभूत गुरुदेवों के चरणों को मैं वंदन करता हूँ। इस प्रकार वंदनीय को वंदनकर प्रथम सेवकजन वत्सल संवेगी, ज्ञान के भंडार और समयोचित्त सर्व क्रियाओं से युक्त स्थविर भगवंतों के चरणों में सुंदर धर्म का सम्यक् स्वीकार करते मैंने सर्व त्याग करने योग्य का त्याग किया है और स्वीकार करने योग्य का स्वीकार किया है। फिर भी विशेष संवेग प्राप्त करते मैं अब वही त्याग स्वीकारकर अति विशेष रूप से कहता हूँ। उसमें सर्व प्रथम मैं सम्यग् रूप से मिथ्यात्व से पीछे हटकर और अति विशेष रूप में सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ, फिर अठारह पाप स्थानक से पीछे हटकर कषायों का अवरोध करता हूँ, आठ मद स्थानों का त्यागी, प्रमाद स्थानों का त्यागी, द्रव्यादि चार भावों के राग से मुक्त, यथासंभव सूक्ष्म अतिचारों को भी प्रति समय विशुद्ध कर, अणुव्रतों को फिर से स्वीकारकर सर्व जीवों के साथ संपूर्ण क्षमापना कर, अनशन में पूर्व कथनानसार सर्व आहार का त्याग कर नित्य ज्ञान के उपयोगपर्वक प्रत्येक कार्य की प्रवत्ति कर, पाँच अणव्रतों की रक्षा में तत्पर, सदाचार से शोभित, मुख्यतया इन्द्रियों का दमन कर, नित्य, अनित्यादि भावनाओं में रमण कर में उत्तम अर्थ की साधना करता हूँ। इस प्रकार कर्तव्यों को स्वीकारकर बुद्धिमान श्रावक एवं श्रमण जीने की अथवा मरने की भी इच्छा को छोड़ने में तत्पर, इस लोक, परलोक के सुख की इच्छा से मुक्त, कामभोग की इच्छा का त्यागी, इस प्रकार संलेखना के पाँच अतिचारों से मुक्त, उपशम का भंडार, पंडित मरण के लिए मोह के सामने युद्ध भूमि में विजय ध्वजा प्राप्त करने के लिए एक सुभट बना हुआ, उस-उस प्रकार के त्याग करने योग्य सर्व पदार्थों के समूह का त्यागी, और 'यह करने योग्य है' ऐसा मानकर स्वीकार करने योग्य कार्यों को स्वीकार करता हूँ, उस-उस काल में नया-नया उत्कृष्ट संवेग होता है, उस गुण द्वारा आत्मा को क्षण-क्षण में अपूर्व समान अनुभव करता हूँ, शत्रु, मित्र में समचित्त वाला, तृण और मणि में, सुवर्ण और कंकर में भी समान बुद्धि वाला, मन में प्रतिक्षण बढ़ते समाधिरस का उत्कृष्ट अनुभव कर, अत्यंत श्रेष्ठ अथवा अति खराब भी 391 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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