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समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारूदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला
और धन में आसक्त हृदय वाला जीव अनेक जन्मों तक दरिद्र होता है और कठोर हृदयवाला वह धन के लिए कर्म का बंध करता है। धन को छोड़नेवाला मुनि इन सब दोषों से मुक्त होता है और परम अभ्युदय रूप मुख्य गुण समूह को प्राप्त करता है। जैसे मंत्र, विद्या और औषध बिना का पुरुष अनेक सों वाले जंगल में अनर्थ को प्राप्त करता है वैसे धन को रखनेवाला मुनि भी महान् अनर्थ को प्राप्त करता है। मन पसंद अर्थ में राग होता है और मनपसंद न हो तो द्वेष होता है ऐसे अर्थ का त्याग करने से रागद्वेष दोनों का त्याग होता है। परीग्रह से बचने के लिए उपयोगी धन को सर्वथा छोड़ने वाला तत्त्व से तो ठण्डी, ताप, डांस, मच्छर आदि परीषहों को छाती देकर हिम्मत रखता है। अग्नि का हेतु जैसे लकड़ी है, वैसे कषायों का हेतु आसक्ति है इसलिए सदा अपरिग्रही साधु ही कषाय की संलेखना कर सकते हैं। वे ही सर्वत्र नम्र अथवा निश्चिंत बनते हैं और उनका स्वरूप विश्वास पात्र बनता है, जो परिग्रह में आसक्त है वह सर्वत्र अभिमानी अथवा चिंतातुर और शंका पात्र बनता है इसलिए हे सुविहित मुनिवर्य! तूं भूत, भविष्य और वर्तमान में सर्व परिग्रह को करना, करवाना और अनुमोदना का सदा त्याग कर। इस तरह सर्वपरिग्रह का त्यागी प्रायः उपशांत बना, प्रशांत चित्तवाला साधु जीते हुए भी शुद्ध निर्वाण-मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। इन व्रतों से आचार्य भगवंत आदि महान् प्रयोजन सिद्ध करते हैं और स्वरूप से ये बड़े से भी बड़े हैं इसलिए इन्हें महाव्रत कहते हैं। इन व्रतों की रक्षा के लिए सदा रात्री भोजन का त्याग करना चाहिए और प्रत्येक व्रत की भावनाओं का अच्छी तरह चिंतन करना चाहिए।
प्रथम महाव्रत की भावना :- यग प्रमाण नीचे दृष्टि रखकर अखंड उपयोग पूर्वक कदम रखकर शीघ्रता रहित जयणापूर्वक चलने वाले को प्रथम व्रत की प्रथम भावना होती है। बीयालीस दोष रहित ऐषणा की आराधना वाले साधु को भी आहार, पानी दृष्टि से देखने की जयणा करने से प्रथम व्रत की दूसरी भावना होती है। वस्त्र पात्रादि उपकरणों को लेने रखने में प्रमार्जन करना और प्रतिलेखना पर्वक जयणा करनेवाले को प्रथम व्रत की तीसरी भावना होती है। मन को अशुभ विषय से रोककर आगम विधिपूर्वक शुभ विषय में सम्यग् जोड़ने वाले को प्रथम व्रत की चौथी भावना होती है। और अकार्य में से वाणी के वेग को रोककर शुभ कार्य में भी आगम विधि अनुसार बुद्धिपूर्वक विचारकर वचन का उच्चारण करने वाले को प्रथम व्रत की पाँचवीं भावना होती है। ऊपर कहे अनुसार से विपरीत प्रवृत्ति करने वाला पुनः जीवों की हिंसा करता है, अतः प्रथम व्रत की दृढ़ता के लिए पांच भावनाओं में उद्यम करना चाहिए।
दूसरे व्रत की भावना :- हंसी के बिना बोलने वाले को दूसरे व्रत की पहली भावना है और विचार कर बोलने वाले को दूसरे व्रत की दूसरी भावना होती है। प्रायःकर क्रोध, लोभ और भय से असत्य बोलने का कारण हो सकता है, इसलिए क्रोध, लोभ और भय के त्यागपूर्वक ही बोलने में दूसरे व्रत की शेष तीन अर्थात् तीसरी, चौथी और पाँचवीं भावनाएँ होती हैं।
तीसरे महाव्रत की भावना :- मालिक अथवा मालिक ने जिसको सौंपा हो उसको विधिपूर्वक अवग्रहउपयोग करने आदि की भूमि की मर्यादा बतानी चाहिए, अन्यथा अप्रीतिस्वभाव अदत्तादान होता है। यह तीसरे व्रत की प्रथम भावना जानना। द्रव्य, क्षेत्र, आदि चार प्रकार के अवग्रह की मर्यादा बताने के लिए गृहस्थ द्वारा उसकी आज्ञा प्राप्त करें वह तीसरे व्रत की दूसरी भावना है। फिर मर्यादित किये अवग्रह का ही हमेशा विधिपूर्वक उपयोग करे अन्यथा अदत्तादान लगता है। इस तरह तीसरे व्रत की तीसरी भावना है। सर्व साधुओं के साधारण आहार और पानी में से भी जो शेष साधु को तथा गुरुदेव ने अनुमति दी हो उसका वही उपयोग करने वाले को तीसरे व्रत की चौथी भावना होती है। गीतार्थ को मान्य उद्यत विहार आदि गुण वाले साधुओं को मासादि प्रमाण
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